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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 मई, 2018

मैं क्यों लिखता हूं

प्रियदर्शन

मैं शायद पहले भी लिख चुका हूं- मैं बस इसलिए लिखता हूं कि लिखना मुझे अच्छा लगता है। कोई मेरा लिखा पढ़ ले तो और अच्छा लगता है, बाज़ार उसका कुछ मोल दे दे- नाकुछ पारिश्रमिक के तौर पर ही- तो कुछ और अच्छा लगने लगता है, वह किसी के काम आ सके तो शायद सबसे अच्छा लगता है। मैं बहुत लिखता हूं- इसके बहुत सारे बाहरी दबाव भी होते हैं- नौकरी का दबाव, दूसरों के कहे का दबाव, अपने भीतर से उठी किसी प्रतिक्रिया का दबाव, और शायद, इन सबके साथ थोड़ी सी प्रसिद्धि की कामना का भी दबाव- हालांकि हिंदी का लेखक अपने ही समाज में जैसा बेचेहरा प्राणी है और लोगों को जैसे प्रसिद्धि मिलती है, उसे देखते हुए ऐसी कामना हास्यास्पद लगती है, फिर भी एक सदाशयी इच्छा उभरती है कि हिंदी का लेखक सिर्फ अपने लेखन के बूते जी सके और जाना जाए। दूसरी बात यह कि लेखन का मोल मेरे लिए इन दबावों से ज़्यादा है। लिखना मुझे क्यों अच्छा लगता है? क्योंकि उससे अपने-आप को, अपने समाज को, अपने समय को बार-बार पहचानने में मुझे मदद मिलती है। लिखना मुझे अच्छा लगता है क्योंकि लिखते हुए जीवन की तहें मेरे आगे खुलती हैं।

प्रियदर्शन


अब उस पृष्ठभूमि पर आऊं जिसने मुझे अनायास कलम थमा दी। मेरी पैदाइश रांची में हुई- ये 1967 का साल था। गंभीर पढ़ाई का सिलसिला 78-80 के बीच शुरू हो गया था, लेखन का उसके कुछ बरस बाद। लेखन का माहौल मुझे विरासत से मिला। पापा विद्याभूषण कई विधाओं में लिखते रहे और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं। मां शैलप्रिया 1994 में गुज़र गईं लेकिन उनके दो कविता संग्रह तब तक आ चुके थे। घर की आलमारियां किताबों से अटी पड़ी रहती थीं और कई पत्रिकाएं आती थीं। अक्षरों की उस दुनिया में मैंने आंखें खोलीं और सबसे पहला रिश्ता कविताओं से बना। उसी दौर में छायावाद के शीर्षस्थ चारों कवियों के अतिरिक्त बच्चन-दिनकर और अज्ञेय से लेकर दुष्यंत-धूमिल और बाद में रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नागार्जुन,त्रिलोचन, केदार तक से परिचय हुआ। गद्य में तो शुरुआत बिल्कुल लोकप्रिय जासूसी और सामाजिक उपन्यासों से हुई। इसके बाद प्रेमचंद, यशपाल, रेणु, जैनेंद्र की उंगली पकड़े-पकड़े मैं धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव,कमलेश्वर, भीष्म साहनी और निर्मल वर्मा तक आया और धीरे-धीरे समकालीन साहित्य से परिचित हुआ।

लिखना मैंने इसी माहौल की तपिश में शुरू किया। ये अंदाज़ा किसी को नहीं था कि ये सोवियत संघ के आख़िरी दिन साबित होने जा रहे हैं। मिखाइल गोर्बाच्योव के नेतृत्व में पेरेस्त्रोइका और ग्लास्तनोस्त की शुरुआत हो चुकी थी,जिसके साफ़-साफ़ आशय उन दिनों समझ में नहीं आते थे। लेकिन साहित्य की दुनिया में वह वामपक्षी जनवादी चेतना का दौर था। हम सब वाम और नक्सली आंदोलन से अभिभूत लेखन कर रहे थे- इस उम्मीद से लबरेज कि बहुत जल्दी बहुत सारी चीजें बदलेंगी- नया ज़माना आएगा।

चीज़ें बदलीं, नया ज़माना आया भी- लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह हमने उसकी कल्पना की थी। नया ज़माना नए दुख, नई व्यवस्था, नई रणनीतियां लेकर आया। धीरे-धीरे यह समझ भी बढ़ी कि विकास के नाम पर चलने वाली दैत्याकार परियोजनाओं को अपना क़द छोटा करना होगा, बराबरी की लड़ाइयां नए ढंग से लड़ी जाएंगी, दोस्त और दुश्मन नए सिरे से पहचाने जाएंगे। आर्थिक बराबरी की अवधारणा के साथ-साथ अस्मितावादी आंदोलनों का भी खयाल रखना होगा।

बहरहाल, अब मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि उस प्रारंभिक दौर ने बहुत कुछ मूल्यवान दिया। शीतयुद्ध की राजनीति के उन अंतिम दिनों में हमें बेशुमार रूसी साहित्य पढ़ने को मिला- गैररूसी मार्क्सवादी साहित्य भी। उन्हीं दिनों प्रेमचंद, गोर्की और लू शून को, टॉल्स्टाय, चेखव, तुर्गनेव को, नागार्जुन,नेरूदा, नाज़िम हिकमत और ब्रेख़्त को, फ़ैज़, पाश और दुष्यंत को बिल्कुल अपने लेखकों की तरह पहचानने का जो संस्कार बना, वह कमोबेश अब भी कायम है, हां, इस परिवार में नए-नए लेखक जुटते जा रहे हैं।

अब अपनी राजनीति पर आ जाऊं। मेरी राजनीति साफ है- वह मेरे लेखन में ज़रूरत के हिसाब से झलकती भी होगी- भले सायास ढंग से, दूर से नज़र आने के लिए पोती हुई, या थोपी हुई न दिखे। मैं इंसाफ़ और बराबरी का हामी हूं और हिंसा के ख़िलाफ़ हूं - जो व्यवस्थाएं किसी भी किस्म की सांप्रदायिक, लैंगिक, आर्थिक गैरबराबरी का, हिंसा का पोषण करती हैं, मैं उनके विरुद्ध हूं। हालांकि यह लिखते-लिखते भी ध्यान आ रहा है कि हम सब ऐसी ही व्यवस्था में जीने के आदी बनाए जा रहे हैं, कुछ कम मनुष्य होकर रहने को अभिशप्त हैं। लेखन निजी स्तर पर मेरे लिए इस प्रक्रिया का प्रतिरोध भी है। इस राजनीति को इसके आगे भी साफ कर सकता हूं लेकिन एक पेशेवर लेखक होने के नाते जानता हूं कि इस विषयांतर से मुझे बचना चाहिए। मैंने बस अपने लिए जो बड़ी लकीर बनाई है, वह आपके सामने रख दी है।

लेकिन लेखक विचारधाराओं के प्रहरी की तरह काम करे, यह बात मुझे कुछ जंचती नहीं। मैं विचारधाराओं के दुर्गों की दरार देखना अपना फर्ज समझता हूं। मैं किलों और परकोटों के भीतर चल रही पाखंडपूर्ण राजनीति का परदा हटाने वाले लेखकों को ज़्यादा ध्यान से पढ़ना चाहता हूं, उन लेखकों को नहीं जो विचारधारा के दुर्गों पर खड्गहस्त पहरा देते हों और ज़रा भी कोई अगल-बगल की दीवार से झांकता दिखे तो उसका सर कलम करने को बेताब रहते हों।

बहरहाल, लिखना धीरे-धीरे आदत का इस तरह हिस्सा बना कि वह लत में बदलता चला गया। लिखते हुए शायद मैं सबसे सुखी होता हूं। लिखने के अलावा और कुछ आता भी नहीं। लिखना भी पता नहीं कितना आता है। लेकिन यही काम है जो करते हुए लगातार कुछ सीखने, खुद को पहचानने और अपनी दुनिया को समझने का एक सुखद अनुभव होता है। लेखन का कक्ष मेरे लिए पूजा का कक्ष नहीं होता कि वहां जूते उतार कर जाऊं। वह मेरे लिए मैदान जैसा होता है जहां खेलते-खेलते एकाध गलत स्ट्रोक भी लग जाएं तो कोई बात नहीं। मेरा लिखना किसी को अच्छा लगे तो मुझे भी अच्छा लगता है। अब लिखते-छपते तीस बरस होने को आए, लेकिन एक लेखक के तौर पर मेरे गुणसूत्र वहीं है जो उन शुरुआती दिनों में बने। लेखन अंततः बराबरी का, न्याय का और मनुष्यता का एक न खत्म होने वाला महास्वप्न है- उन्हीं दिनों बनी यह समझ अब तक काम आ रही है।
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