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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अप्रैल, 2018

उनके हाथ में इतना ही है...

यादवेन्द्र 

                    खोल ही लेते हैं 
                    सब बंद दरवाजे
                    मोहब्बत करने वाले!



अब्बास क्योरोस्तमी 




2016 में 76 साल की उम्र में दिवंगत हुए अब्बास क्योरोस्तमी (फ़ारसी में उन्हे अब्बोसे क्योरोस्तानी कह कर पुकारा जाता है) ईरान के विश्व प्रसिद्ध फ़िल्मकार ,पेंटर और फ़ोटोग्राफ़र दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फिल्मकारों में की जाती है। जापान के शिखर के फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा ने अब्बास क्योरोस्तमी के बारे में कहा : 'मैं अब्बास के बारे में अपनी भावनाओं को शब्दों में बयान नहीं कर सकता ...सत्यजित रॉय के इंतकाल की खबर सुनकर मेरा मन गहरे अवसाद से भर गया ,पर अब्बास  क्योरोस्तमी की फ़िल्में देखने के बाद मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि उनकी कमी पूरी करने के लिए बिलकुल उपयुक्त फ़िल्मकार धरती पर भेज दिया।'


अपने देश की सामाजिक संरचना पर कटाक्ष करने के चलते उन्हें फ़िल्में बनाने के लिए न तो किसी प्रकार की सरकारी सहायता मिलती थी न ही अपने देश ईरान में उनके प्रदर्शन की अनुमति । इस बाबत उनसे अक्सर पत्रकार सवाल करते ,एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा : "मैं हुकूमत का शुक्रगुज़ार रहूँगा  कि उन्होंने मेरी फ़िल्में रिलीज़ करने पर पाबंदी लगायी है ,उनके हाथ में इतना ही है बस ....अच्छी बात यह है कि उनके हाथ इस से आगे नहीं पहुँचते। जहाँ तक मेरी फ़िल्म के प्रशंसक दर्शकों की बात है वे इसे गैरकानूनी ढंग से हासिल करते हैं और खूब देखते हैं। फल पकने के बाद हवा में उड़ रहा है ,जिसकी मर्ज़ी उसको पकड़े और खाना चाहे तो खाये ... हवा जानती है उसको कहाँ किसके पास तक ले जाना है। " अपने आखिरी दिनों में उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार ने बीते सालों में मेरी कोई फ़िल्म ईरान में प्रदर्शित नहीं होने दी ... उन्हें उन फ़िल्मों की कोई समझ ही नहीं है।


छाया चित्र: अब्बास क्योरोस्तमी 

 

अपने साथी ईरानी फ़िल्मकार ज़फर पनाही के विपरीत वे राजनैतिक मुद्दों से परहेज करते थे और हुकूमत के साथ सीधा टकराव भी मोल नहीं लेते।अपने देश में फिल्म निर्माण की बेहद सख्त पाबंदियों की खुले आम आलोचना से बचते हुए  अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था कि मेरे पाँव ईरान में भले हों पर मेरा मन निरंतर अन्य जगहों पर विचरण करता रहता है। इस सन्दर्भ में बातचीत में वे अक्सर महान रुसी फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की का उदाहरण देते  जिन्होंने अंतिम कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में विदेशों में बनायीं --  अब्बास  क्योरोस्तमी ने अपनी अंतिम दो फ़िल्में इटली और जापान में बनायीं और चर्चा  थी कि तीसरी फ़िल्म चीन  में बनाने जा रहे थे पर उनके अवसान ने इन अटकलों पर विराम लगा दिया। इन फैसलों को जायज ठहराने के लिए वे सिनेमा की भाषा को देश और भाषा की परिधि से परे जाकर विश्व सृजन कहते थे पर साथ ही यह भी कहते  कि यदि आप किन्हीं मजबूरियों के चलते एक ही  गोलचक्कर में घूमते रहते हैं तो काहे के फ़िल्मकार हुए ,आप तो महज़ टेक्नीशियन बन कर गए।यदि इनसे बचना है तो आपको ख़ुद को नए रूप में ढालते रहना होगा ... अपने काम की जगह बदलते रहें ,भाषा बदलते रहें ,अलग अलग समाज संस्कृति चुनते रहें -- इस से बढ़िया और कोई बात नहीं हो सकती।


अपनी धरती से जुड़े रहने के आग्रह और उसके कारण रचनात्मक स्तर पर सालों साल से पेश आ रही मुश्किलों के कारण मन में पैदा हुई कड़वाहट को वे इन शब्दों में व्यक्त करते :"मुझे इसका इल्म बिलकुल नहीं कि सही क्या है और गलत क्या है ,पर यह क़ुबूल करने में मुझे कोई परेशानी नहीं कि मुझमें किसी प्रकार के राष्ट्रीय गौरव का भाव नदारद है.... मैं ईरानी हूँ तो किसी तरह का फ़ख्र इसको ले के मेरे मन में नहीं है ... मैं बस जैसा हूँ वैसा ही हूँ। अक्सर मैं खुद को किसी दरख़्त की तरह देखता हूँ ,उस दरख़्त का उस धरती के लिए कोई विशेष आग्रह नहीं होता जिसपर वह खड़ा होता है ... उसका काम फल देना है ,पत्तियाँ देना है और खुशबू बिखेरते रहना है।"


सृजनात्मक भूख को मिटाने के लिए अब्बास क्योरोस्तमी ने कई बार अलग अलग तरह के काम किये - बाकायदा फ़िल्मकार बनने से पहले उन्होंने पेंटिंग की ,विज्ञापन के लिए फ़ोटो खींचे और लघु फ़िल्में बनायीं ,किताबों के लिए ग्राफ़िक्स और चित्र बनाए ,कवितायेँ लिखीं और संकलित किया।पिछले दशक में लंदन में मोजार्ट का एक ऑपेरा निर्देशित किया और क्यूबा जाकर नवोदित युवा  फ़िल्मकारों  दस दिन की एक वर्कशॉप आयोजित की।



छाया चित्र: अब्बास क्योरोस्तमी 

अब्बास क्योरोस्तमी एक प्रोफेशनल और नामी गिरामी फ़ोटोग्राफ़र भी थे और अपनी फ़ोटो प्रदर्शनी लगाते भी रहते थे। एक बार किसी पत्रकार के पूछने पर अब्बास क्योरोस्तमी ने जवाब दिया था कि " मुझे सचमुच जानना है तो मेरी तस्वीरों से जानो ... मेरी हर फ़िल्म किसी न किसी फ़ोटो से निर्मित होती है।"आगे वे कहते हैं कि मुझे अपनी खींची तस्वीरें बेहद प्रिय हैं ... वे किसी न किसी पुराने दोस्त सरीखी होती हैं।


जब अभिव्यक्ति पर हज़ार ताले पड़े हों तो कोई भी हार न मानने वाला कलाकार वही करेगा जो अब्बास क्योरोस्तमी ने अपने जीवन के अंतिम महीनों में किया - अपने देश में फ़िल्में वे बना नहीं सकते थे सो दो दशकों में खींचे छायाचित्रों की एक प्रदर्शनी कनाडा में लगा दी जिसका शीर्षक रखा 'डोर्स विदाउट कीज़'...... इस प्रदर्शनी में सभी भारी भरकम किवाड़  थे  जिनपर कभी न खुल सकने वाले मोटे ताले जड़े  हुए थे।


इस प्रदर्शनी के विषय और उद्देश्य के बारे में अब्बास क्योरोस्तमी का कहना था :"देखने में मेरा काम किसी डिफेंस मेकैनिज्म जैसा लग सकता है पर यह तमाम बंदिशों और यंत्रणाओं के प्रति एक प्रतिरोध कर्म भी है। इन किवाड़ों की ओर मुझे जो बातें सबसे ज्यादा खींचती हैं वे हैं जीवन .. उम्र का पकना ... और पकी उम्र की खूबसूरती ..... इन किवाड़ों के पीछे क्या घटित हो रहा है ?इनसे बाहर कौन खड़ा है कि किवाड़ खुले और वह अंदर दाख़िल हो ?कौन है जो उन बंद किवाड़ों पर निगाहें मारता हुआ पास से चुपचाप गुज़र रहा है ?नयी तरह के किवाड़ों में अंदर झाँकने के लिए सूराख़ बने होते हैं पर इन पुराने किवाड़ों में वो कहाँ ... दरअसल ये उस ढब के जीवन की याद दिलाते हैं जो अब कहीं नहीं हैं। " 

छाया चित्र: अब्बास क्योरोस्तमी 


फ़ोटो के साथ उन्होंने दो और माध्यमों का बड़ा भावपूर्ण सृजनात्मक इस्तेमाल किया थे ... किवाड़ों के खुलने बंद होते समय उत्पन्न ध्वनियों का ,उनकी चरमराहट का ,  पार रहने वाले लोगों के दैनन्दिन जीवन की ध्वनियों का - मनुष्य ध्वनियों के साथ पंछी के कलरव का। और साथ साथ अपनी बेहद छोटी पर भावपूर्ण कविताओं का भी। 



प्रदर्शनी में लगी हुई उनकी कविताओं के कुछ नमूने  :


घंटी खराब है 
मेहरबानी कर के 
किवाड़ पर दस्तक दीजिये ...... 


मैं आया 
आप मिले नहीं 
सो मैं उलटे पाँव लौट गया ....  


हवा ने 
खोल दिया जर्जर किवाड़ 
फिर बंद कर रही है उसे 
चर्र चर्र 
एक बार नहीं 
बार बार .....  


चाभियाँ दर्जनों हैं 
जो सदियों से यहाँ पड़ी हुई हैं 
मैं उनको कैसे फेंकूं 
कहाँ है ऐसी जगह जहाँ ताले नहीं .... 



भारी भरकम ताला 
रखवाली कर रहा है 
बिना छत वाली हवेली के 
सड़े गले किवाड़ की ...  


आज मैं दिन में घर रहूँगा 
और किसी के लिए खोलूँगा नहीं 
किवाड़,  पर 
मेरे मन के द्वार 
खुले हुए हैं पूरे के पूरे 
दोस्तों के लिए जो मुझसे 
तीखी बहस में उलझते हैं हमेशा 
और अड़ियल 
परिचितों के लिए भी ....  
००

यादवेन्द्र 

पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई 
रूड़की

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