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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 अप्रैल, 2018

बदलते गाँव की कहानी विषय पर चर्चा हुई

प्रस्तुति: सुभाष मिश्र

पुणे में आज कथा समाख्या के तीसरे सत्र के समापन के साथ ही तीन दिवसीय आयोजन संपन्न हुआ तीसरे सत्र में कथाकारों ने बदलते गांव की कहानी विषय पर अपने वक्तव्य दिए। सत्र के प्रारंभ में आलोचक जय प्रकाश ने विषय की प्रस्तावना प्रस्तुत की। तदुपरांत कथाकार शिव मूर्ति महेश कटारे ऋषिकेश सुलभ आशुतोष सुभाष मिश्र देवेंद्र नारायण सिंह अपने वक्तव्य दिए चर्चा में शशीकला राय ने हस्तक्षेप किया समापन वक्तव्य स्थानीय संयोजक और कथाकार दीर्घ नारायण ने दिया अपने आरंभिक वक्तव्य में जयप्रकाश ने पूंजी टेक्नोलॉजी और बाजार के द्वारा रचे गए वैश्विक यथार्थ के ग्रामीण समाज में संक्रमण और उसके फलस्वरूप गांव की आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में मूलगामी स्तर पर हुए बदलाव की विस्तृत विवेचना की उन्होंने औपनिवेशिक दौर से लेकर वर्तमान समय तक कहानी और जीवन दोनों में हुए परिवर्तनों की व्याख्या की। इस अवसर पर कथा समाख्या के संयोजक तथा कथादेश के सम्पादक हरिनारायण और कथाकार आनन्द हर्षुल भी उपस्थित थे।




बदलते गाँव की कहानी सत्र की शुरूआत करते हुए कथाकार आशुतोष ने कहा किपहले गाँव मे खेती करने वाले किसान को उतनी पूँजी नही लगती थी जितनी आज लग रही है ।गोबर खाद , बीज सब वो अपने पास से लगाता था अब अधिक उत्पादन का सपना दिखाकर सब कुछ बाज़ार उपलब्ध करा रहा है ।उन्होंने कहा कि गाँव मे विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है ,उसे किस रूप मे लिया जाये । बदलाव ऐसा हो कि पुरानी चीज़ें , मूल्य भी बचे रहे और गाँव की तरक़्क़ी भी हो ।यदि गाँव मे स्मृतियों का कुछ भी ना बचे तो इसे कैसे स्वीकार करे ।
चरणसिह पथिक ने कहा कि गाँव अब पहले जैसे नही रहे । बाज़ार अब गाँव मे पहुँच गया है । चुनाव समीकरण ने जातिव्यवस्था को धत्ता बताकर ज़रूरत के संबंधों को बढ़ावा दिया है । कथाकार
कथाकार देवेन्द्र ने कहा कि गाँव मे हो रहे बदलाव से जहाँ दलित , शोषित वर्ग के लोग , महिलाएँ सशक्त हुई हैं वहीं गाँव से जड़ता भी कम हुई है । गाँव का चरित्र बदला है । संयुक्त परिवार के दबाव के चलते जो स्वाभाविक स्वतंत्रता परिवार के सदस्यों को , विशेषकर महिलाओं को नही थी , वह  अब उनके पास है ।

कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि जो लेखक गाँव मे रहता होगा वह यदि गाँव की सच्चाई लिखेगा तो गाँव मे रहने लायक नही रहेगा ।हर गाँव एक हिन्दुस्तान है और हर गाँव मे बेमानी के एक से बढ़कर एक नायब तरीक़े हैं । उन्होंने कहा कि बहुत कम कथाकारो की कहानी मे आज के बदले हुए गाँव की कहानी आ रही है । गंभीर कथाकार को किसी भी माध्यम से गाँव से जुड़े रहकर वहाँ के हालातों से रूबरू होकर ग्रामीण जीवन की कहानियों को लिखना चाहिए ।
कथाकार नारायण सिंह ने कहा कि ग्रामीण जीवन का यथार्थ दिन पर दिन बदलता जा रहा है ।शोषण के तरीक़े बदल रहे हैं ।
कथाकार एंव नाटककार ऋषिकेश सुलभ ने कहा कि हिन्दी कहानियों का समाज शास्त्रीय अध्ययन नही हुआ ।हम आज के गाँव को रोमांटिक नज़रिये से नही देख सकते ।हिन्दी कहानियों मे गाँव की बहुत अच्छी स्थिति नही है ।गाँव से लेखकों का संबंध नही के बराबर है । अभिव्यक्ति के लिए नये हुनर , नये अवसर तलाशने होंगे ।
संस्कृति कर्मि एंव समीक्षक सुभाष मिश्र ने कहा कि गाँव मे खेती की ज़मीनों का रक़बा 40% कम हुआ है ।सरकारी बैंकों द्वारा वर्ष 2013-14 मे औघोगिक घरानों का 1.14 लाख करोड़ क़र्ज़ा माफ़ किया गया है ।2014-15 मे कृषि क्षैत्र मे 14% निवेश रह गया जो पहले घरेलू उत्पादन का एक तिहाई होता था ।किसान बड़े लोगो को , कारपोरेट को अपनी ज़मीन बचने मजबूर है । हमें फ़ारमर्स और परंपरागत किसान के अंतर को समझना होगा । जिन लोगो को आगे रखकर खेती को लाभकारी बताया जा रहा है दरअसल वे बड़े फार्मर हैं जिनके पास पूँजी , तकनीक , बाज़ार और बड़ी मात्रा मे ज़मीन है ।सुभाष मिश्र ने बहुत से कथाकारो की कहानी का उल्लेख करते हुए कहा कि हमें बदलते गाँव के पीछे छिपे उन कारणों की पड़ताल करनी होगी जिसकी वजह से किसान मज़दूर मे तब्दील होने को विवश है ।


कथाकार महेश कटारे ने कहा कि हमें किसान और फार्मर के बीच के अंतर को समझना होगा ।उन्होंने उनके गाँव मे हुई किसानों की मौत के बाद लिखी अपनी कहानी फागुन की मौत तथा पंकज  की कहानी चोपडे की चुडैलो का ज़िक्र किया ।उन्होंने गाँव मे जात को ख़त्म करके नये वर्ण के उदय और उससे उत्पन्न स्थितियों की भी चर्चा की ।
गोष्ठी मे  उपस्थित शशि कला राय ने कहा कि बदलते गाँव को जानने के लिए किरण सिंह की कहानी संझा है जिसमें गाँव की स्त्री के भीतर के द्वंद ,समाज के पाखण्ड वहाँ के चरित्र और थर्ड जेंडर की स्थिति को बयान किया गया है । लोक बाबू की किसान परिवार की आत्महत्या को लिखी कहानी और शिवमूर्ति की कहानी का उल्लेख किया ।
स्थानीय संयोजक कहानीकार श्री दीर्घनारायण ने कथा समाख्या के पूना आयोजन को बहुत ही उपयोगी और सफल बताते हुए कहा कि गाँव बदल ज़रूर रहे हैं वहाँ के सत्ता केन्द्र राजधानियों मे शिफ़्ट हो रहे है ।गाँव के सामाजिक , मानवीय मूल्य कमज़ोर ज़रूर पड़ रहे है पर पूरी तरह समाप्त नही हुए हैं ।गाँव के संभावित यथार्थ मे कहानीकार की कल्पना की झलक उनकी कहानी मे आना चाहिए ।
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