image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 मार्च, 2018

स्मृति संकल्प यात्रा दो:

यह धन शक्ति से जन शक्ति की लड़ाई है

कविता कृष्णपल्लवी

नौजवान भारत सभा, व  स्‍त्री मुक्ति लीग द्वारा चलाये जा रहे ‘स्‍मृति संकल्‍प यात्रा, उत्‍तराखण्‍ड’ अभियान 10 मार्च से 13 मार्च तक श्रीनगर व उसके आस-पास के इलाकों में चला। इस दौरान जनसंपर्क, नुक्‍कड़ सभा द्वारा क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते हुए व्‍यापक पर्चा वितरण किया गया। इसके साथ ही ‘गैरसैंण’ को उत्‍तराखण्‍ड की राजधानी बनाये जाने को लेकर श्रीनगर में चल रहे आमरण अनशन पर बैठे आंदोलनकारियों को समर्थन दिया गया।

कविता कृष्णपल्लवी

इस आंदोलन के समर्थन में अपनी बात रखते हुए कविता कृष्‍णपल्‍लवी ने कहा कि, सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि वे कौन से तबके हैं जो ‘गैरसैंण’ को राजधानी नहीं बनने देना चाहते। इनमें सबसे पहले उत्‍तराखण्‍ड के तराई व मैदानी इलाकों के कारखानों के मालिक पूँजीपति, दूसरे इन्‍हीं इलाकों के समृद्ध फार्मर व कुलक, तीसरे भू-माफियाओं और बिल्‍डरों की लॉबी और चौथे नेताशाही-नौकरशाही तथा उच्‍च मध्‍यवर्ग के वे भ्रष्‍ट-विलासी लोग हैं जो दून घाटी में ऐश फरमा रहे हैं। ये सभी वर्तमान संसदीय बुर्जुआ राजनीति के खंभे हैं और किसी भी कीमत पर पहाड़ में राजधानी बनने देना नहीं चाहते।


‘गैरसैंण’ उत्‍तराखण्‍ड की आम जनता की माँग है, जिनकी ज़ि‍न्‍दगी पहाड़ों की अर्थव्‍यवस्‍था की तबाही से बरबाद हो गयी है। इस आंदोलन के लिए यह ज़रूरी है कि पूरे पहाड़ी क्षेत्र में संघर्ष समितियों का गठन किया जाना चाहिये। जबतक ‘गैरसैंण’ को राजधानी घोषित नहीं किया जाता तबतक नेताओं का पहाड़ में पूर्ण बहिष्‍कार किया जाना चाहिए। ‘गैरसैंण’ की लड़ाई धन शक्ति से जन शक्ति की लड़ाई है। जुझारू संकल्‍प शक्ति और संगठन बद्धता के द्वारा ही इसे लड़ा और जीता जा सकता है।





इस अभियान के दौरान नुक्‍कड़ सभा में अपनी बात रखते हुए नौजवान भारत सभा के फेबियन ने कहा कि, यह पूँजीवादी व्‍यवस्‍था श्रम और प्रकृति की लूट पर टिकी हुयी है। जबतक यह व्‍यवस्‍था रहेगी तबतक बहुसंख्‍यक आबादी अपनी बुनियादी अधिकारों से वंचित रहेगी। प्रकृति और संसाधनों की अकूत लूट के द्वारा इस पूँजीवादी साम्राज्‍यवादी व्‍यवस्‍था ने पर्यावरण के विनाश के साथ पूरे पृथ्‍वी पर जीवन के अस्तित्‍व को ही ख़तरे में डाल दिया है। आज आम मेहनतकशों, नौजवानों का संघर्ष इस पूरी पूँजीवादी-साम्राज्‍यवादी व्‍यवस्‍था के ख़ि‍लाफ है। भगतसिंह ने उसी दौर में ‘इंक़लाब ज़ि‍न्‍दाबाद और साम्राज्‍यवाद मुर्दाबाद’ का नारा दिया था। पूँजीवाद और साम्राज्‍यवाद को खतम किये बिना सच्‍चे अर्थों में एक शोषण-विहीन समतामूलक समाज की स्‍थापना की तरफ नहीं बढ़ा जा सकता है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें