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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 जनवरी, 2018


संस्मरण:   बीते वर्षों को बूंद -बूंद जीना   

मीरा श्रीवास्तव 


मीरा श्रीवास्तव 

     
वर्ष १९७५ को मुड़कर देखना ......मानो अपनी गर्दन को दाहिनी या बाईं दिशा में अंतिम सीमा तक मोड़ लेने की तकलीफदेह कवायद से गुजरना ! बयालीस वर्ष पीछे ठौर की कुछ साफ़ – सफ्फाक तस्वीरें , कुछ वक्त की धूल के नीचे अपनी शक्ल खो बैठीं तस्वीरें और कितनी ही ऐसी तस्वीरें जो वक्त की गुबार में उड़ न जाने कहाँ पहुँच गईं | साफ़ चमकती तस्वीरें स्मृति में भी उतनी ही चमकदार हैं तो दूसरी तरफ धुंधली तस्वीरों के चेहरों को पहचानने , घटनाओं की टूटी श्रृंखला से उन्हें जोड़ना आसन नहीं |
                 ७५ का साल वैसे तो आजादी के बाद भारतीय इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज है -२५ जून की काली रात ने  आजादी की परिभाषा को आपाद्काल के छद्म में जैसे लील ही लिया | हमारे लिए भी ७५ का साल बहुत ख़ास था | पटना विश्वविद्यालय उनदिनों उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता था और इस वि . वि के छात्र होने के नाते हम भी अपनी गर्दन अकडा कर ही चलते थे | पटना वीमेन्स कॉलेज से इंटर एवं बी ए ऑनर्स कर स्नातकोत्तर ( हिंदी साहित्य ) करने के लिए पटना वि वि में दाखिला लिया | यह उस समय की बात है जब इस वि वि में दाखिला पाना किसी उपलब्धि से कम नहीं हुआ करती थी |
यूनिवर्सिटी कैंपस में ही स्थित जी डी एस महिला छात्रावास हमारा नया आशियाना बना |वीमेन्स कॉलेज के कठोर अनुशासन से बंधे हॉस्टल जीवन के बाद इस नए परिवेश की स्वछंदता में अभ्यस्त होने में कुछ समय लगा लेकिन आजादी कितनी प्यारी होती है यह भी जाना |वि वि का विशाल परिसर , जिसमें इंजीनियरिंग कॉलेज , चिकित्सा महाविद्यालय ( पी एम सी एच एंड हॉस्पिटल ) , पटना कॉलेज ( कला महाविद्यालय ) साइंस कॉलेज साथ में हॉस्टल , सभी विषयों के स्नातक एवं स्नात्तकोत्तर विभाग – हर विभाग अपने – अपने विषयों के निष्णात प्राध्यापकों से समृद्ध !
                  हिंदी स्नात्तकोत्तर विभाग के अध्यक्ष थे -डॉ केशरी कुमार , नकेनवाद या प्रपद्यवाद  के संस्थापक कवियों नलिन विलोचन शर्मा , नरेश कुमार के साथ जिनका नाम जुड़ा था | जय शंकर प्रसाद की ‘ कामायनी ‘ की पंक्तियों का धाराप्रवाह पाठ करते हुए जब वे अनुस्यूत काव्य सौंदर्य का सांगोपांग विवेचन करते तो प्रसाद के पात्र जीवंत हो उठते | डॉ. केशरी कुमार की ख्याति का फायदा उस बैच के हम विद्यार्थियों को इस तरह मिला कि हिंदी स्नातकोत्तर विभाग में किसी न किसी कारण – सेमिनार , पी एच डी का इंटरव्यू , व्याख्याताओं का इंटरव्यू - हिंदी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकारों का प्रायः आना जाना लगा रहता | अज्ञेय , नामवर सिंह ,  कमलेश्वर , डॉ. नगेन्द्र , जानकीवल्लभ शास्त्री , फणीश्वरनाथ रेणु उनमें खास थे हमारे लिए | कुछ दृश्य इस गहराई से मन की दीवारपर इतनी गहराई से खुदे हैं कि समय की गर्द भी अपना असर उनके ऊपर नहीं छोड़ पाई | दुग्ध धवल जानकी वल्लभ शास्त्री जब झक्क सफ़ेद धोती के ऊपर घुटनों के कुछ नीचे तक लम्बे कुरते में  कक्षा में आये तो एकाएक ऐसा आभास हुआ जैसे सुमित्रानंदन पन्त हमारे सामने खड़े हों , उस भव्य व्यक्तित्व को प्रत्यक्ष देखना अनिर्वचनीय अनुभूति थी , उनका धाराप्रवाह काव्यपाठ , रचना में डूबते हुए हमें भी काव्य सौन्दर्य की गहराई में सहजता से उतार देना – आज सब सपने जैसा ही लगता है|   दूसरा  असाधारण संयोग था अज्ञेय जी का कक्षा में विभागाध्यक्ष के साथ प्रवेश ! आज तक अपने आप को विश्वास दिलाना पड़ता है कि सचमुच अज्ञेय जी हमारे सामने खड़े थे | उन्होंने क्या कहा , कितनी देर रहे , हमें कुछ स्मरण नहीं , उनकी  आभिजात्यपूर्ण वेशभूषा , भव्य सुदर्शन व्यक्तित्व ने तो जैसे पूरी की पूरी कक्षा को सम्मोहित ही कर लिया था , मंत्रमुग्ध , निर्निमेष हम उन्हें देखते ही रह गए , और अज्ञेय जी मुस्कुराते हुए बेंच पर बैठे छात्रों की डेस्क पर बैठे तब भी हम मोहाविष्ट ही बने रहे , वह स्थिति तब ख़त्म हुई जब वे कक्षा से बाहर निकले , हमारे लिए वह स्वप्नभंग की स्थिति थी , उनके जाते ही ‘ शेखर : एक जीवनी ‘ , ‘ नदी के द्वीप ‘, से जुड़े कितने ही प्रश्न सर उठा -उठा अकुलाने लगे | आजतक यह दुःख सालता है कि स्वयं अज्ञेय जी से उनके पात्रों के विषय में जानने का अवसर हमने गँवा दिया | बहरहाल ‘  इन विद्वानों के समागम का सबसे बड़ा लाभ हमें यह मिला कि हिंदी साहित्य की भिन्न – भिन्न विधाओं के नवीनतम प्रयोगों से हमारा परिचय तात्कालिक प्रभाव के साथ ही होता गया जिसे वैयक्तिक तौर पर हम सभी मित्र अपना सौभाग्य और बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं | हिंदी साहित्य जगत के इन लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति में हमारे अटपटे प्रश्नों का भी समुचित समाधान हमें मिल जाता |



अज्ञेय 
               

 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से हमारा   प्रत्यक्ष साक्षात्कार कभी नहीं हुआ किन्तु उनसे सम्बंधित एक रोचक वाकया हमें विभागाध्यक्ष महोदय ने सुनाया – वि वि की किसी छात्रा की पीएच डी की उपाधि से सम्बंधित साक्षात्कार के लिए वे वि वि में  आये थे | स्वाभाविकतः अपने सामने उन जैसे दुर्द्धर्ष विद्वान को देख वह छात्रा इतना घबडा गई कि बोर्ड के किसी भी सदस्य के एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाई और फूट – फूट कर रोने लगी | सबको विश्वास हो गया कि द्विवेदी जी शोध को अस्वीकृत कर देंगे , किन्तु जब उन्होंने उस छात्रा से कहा उसका साक्षात्कार बहुत अच्छा रहा तो सब आश्चर्य से उन्हें देखने लगे | बड़ी ही गंभीरता के साथ उन्होंने अपनी बात पूरी की , “ वैसे भी मुझे लड़कियों का अधिक बोलना पसंद नहीं “ | यह प्रसंग सुनाते – सुनाते डॉ.केशरी कुमार जो अपनी गंभीरता के लिए जाने जाते थे , संभवतः यादों में खो कुछ अतिरिक्त ही गंभीर हो उठे और हमारे ठहाके भी गले में ही अटके रह गए |
                   यादों के दरीचों के खुलने का यही होता है नतीजा ! छूटे सिरे कभी तो हाथों की पहुँच में , कभी पहुँच के एकदम बाहर हो जाते हैं , आपस में सब गड्डमड्ड ! मैं बात कर रही थी १९७५ की , जब हम स्नातक प्रतिष्ठा की वि वि परीक्षा देने की तैयारी पूरी कर चुके थे और प्रोग्राम भी वि वि ने घोषित कर दिया  था  और तभी ..... 25 जून की अर्धरात्रि आपातकाल की घोषणा के साथ ऐसी काली रात में बदल गई जिसका वितान इक्कीस महीने तक खीँच गया |पूरे देश में स्तब्धता की स्थिति व्याप्त हो गई | आपातकाल की घोषणा की प्रासंगिकता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करने के उद्देश्य से प्रस्तुत तर्क कि राष्ट्रव्यापी अराजकता पर अंकुश लगाने के लिए यह कदम उठाना आवश्यक था , निरंकुशता के इस पर्याय का औचित्य सिद्ध करने में असफल रहा |निःशब्दता की आरोपित स्थिति में प्रलय का आह्वान करती शांति में पूरा देश डूबा हुआ था लेकिन भीतर ही भीतर व्यवस्था के प्रति विरोध और असंतोष की भावना विध्वंसक – विस्फोटक रूप धारण करने लगी थी | अंततः इस असंतोष ने एक वृहद् संगठनात्मक आकार लेते हुए जे पी आन्दोलन का नाम ले लिया | विद्यार्थियों की सहभागिता इस आन्दोलन में इतनी व्यापक रही कि विद्रोह को कुचलने के सरकारी प्रयास के अंतर्गत जेलें छोटी सिद्ध हो गईं लेकिन विद्रोह था कि थमने का नाम नहीं ले रहा था | प्रताड़ना ,अत्याचार , अनाचार का तांडव नृत्य पूर्ण समग्रता के साथ राष्ट्रीय मंच पर अपना खेल दिखा रहा था तो दूसरी ओर विरोध और विद्रोह के तुमुलनाद ने व्यवस्था को हिलाकर रख दिया | इस अशांति के परिप्रेक्ष्य में हमारी परीक्षायें स्थगित होनी ही थीं सो हो गईं , सत्र पिछड़ गया और हमारा परीक्षाफल ७६ में आया | ७५ के साल ने इस तरह हमारे कीमती समय का भी नुकसान किया |
                       इसी क्रम में प्रो. रामवचन राय का उल्लेख करना आवश्यक लग रहा , क्योंकि एक तो ये अपने शांत ,सौम्य , सुसंस्कृत व्यवहार , अभिजातपूर्ण वेशभूषा के कारण हम छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय थे दूसरे अपनी सधी आवाज़ में जब वह आलोचना , नई कविता ,नई कहानी या उपन्यास विधा पर व्याख्यान देने लगते तो हम सब उनकी विषयगत गहराई के कायल होकर रह जाते | उन्होंने हमें सदा ही इस बात के लिए प्रेरित और उत्साहित किया कि स्थापित साहित्यिक धारणाओं से सहमत होना कतई आवश्यक नहीं बशर्ते हमारी असहमति तर्कसम्मत और आधारसम्मत हो | आज सोचकर हँसी आती है कि अतिउत्साह में भर किस तरह हम आदरणीय शुक्ल जी से लेकर राम विलास शर्मा से अपनी असहमति जताने में पीछे नहीं रहते और हमारी उन बेवकूफियों पर किस तरह प्रो. राय धीमे – धीमे मुस्कुराते होते | हालांकि यह छूट उन्होंने हमें सेमिनार और ट्यूटोरिएल कक्षाओं तक ही दी थी लेकिन इस छूट ने हममें से कईयों को खूब माँजा – प्रो. कर्मेंदु शिशिर , प्रो. शरदेन्दु , प्रो. अविनाश चन्द्र मिश्र उसी सत्र के आज लब्ध प्रतिष्ठ व्यक्तित्व हैं जिन्हें अपना मित्र कहने में सचमुच गर्व की अनुभूति होती है | प्रो. राय ने हमारे ग्रुप का नाम “ छन्ना पात्र “ रखा था जो अगर्हित को बिना छाने स्वीकार कर ही नहीं सकता | तत्कालीन जे पी आन्दोलन में प्रो. राय की सक्रिय सहभागिता रही | उन्हीं दिनों फणीश्वर नाथ रेणु जो अपने आंचलिक उपन्यास विधा के अंतर्गत “मैला आँचल “ से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके थे एवं उनकी कहानी “ तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम “ पर वासु भट्टाचार्य निर्देशित फिल्म “ तीसरी कसम “ ने राष्ट्रीय पुरष्कार प्राप्त कर आम जनजीवन में रेणु जी को बहुचर्चित और लोकप्रिय बना दिया था | रेणु जी अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण प्रायः पी एम सी एच में अपने इलाज के लिए आया करते थे , एक दो बार प्रो. राय हमें अपने साथ उनसे मिलवाने ले गए | एक बार जब हम जेनरल वार्ड में उनसे मिलने गए उस समय उनकी स्थिति बहुत नाजुक थी , डॉ. भी चिंतित थे , लेकिन हम लोगों को देखते ही उन्होंने हमारा अभिवादन स्वीकार किया | पहली बार उनके बेड के पैताने एक महिला – जो  आकार में छोटी , दुबली ,गौर वर्णी थीं और न जाने कैसे मुझे ऐसा  आभास हुआ कि वे बंगाली हैं , जो उनके यह बोलते ही पुष्ट हो गई – “ आपनी चाय खाबेन “ एक सहज स्मित उनकी आँखों से उतर चेहरे जो पर फैल गई जब मेरे यह पूछने पर कि आप रेणु जी की कौन हैं और वे कुछ बोलतीं की रेणु जी बोल उठे , ‘ ये लतिका जी हैं , मेरी सबकुछ , मेरी प्रेरणा ! “ मेरा मन अजीब सी ग्लानि से भर उठा अपराध बोध से कि ऐसे व्यक्तिगत प्रश्न पूछने का मुझे भला क्या अधिकार था , वहीँ रेणुजी पर अपार श्रद्धा भी उमड़ी कि बिना किसी लाग -लपेट के उन्होंने अपनी और लतिका जी के सम्बन्ध को सार्वजनिकता से स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं किया | रेणु जी और लतिका जी से वह मिलना ही अंतिम बार का मिलना हुआ | कुछ ही दिनों बाद उसी वार्ड में रेणु जी ने अंतिम साँस ली| शारीरिक रूप से रेणु जी अत्यधिक दुर्बल थे अतः हम भी कोशिश करते कि बातचीत में उनकी संलिप्तता  कम से कम हो , फिर भी “ तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम “ से सम्बंधित हमारी कुछ शंकाओं का उन्होंने बड़ी सहजता से समाधान किया | मेरा बचपन और स्कूली जीवन के लगभग सारे वर्ष  पूर्णिया , कटिहार एवं अररिया ( रेणु जी का जन्म स्थान ) में ही बीता चूँकि मेरे पिताजी बिहार सरकार के भवन -पथ निर्माण विभाग में अभियंता के पद पर कार्यरत थे | यद्यपि स्कूली जीवन के प्राम्भिक वर्षों में रेणु जी की कृतियों से परिचय नहीं के बराबर था , आज अवश्य दुःख होता है कि अररिया में होते हुए भी उनसे कभी मिलना न हो पाया , या यह भी संभव है कि सांस्कृतिक -साहित्यिक आयोजनों में उन्हें देखा भी हो क्योंकि उनदिनों पूर्णिया , कटिहार वगैरह उत्कृष्ट सांस्कृतिक आयोजनों के लिए प्रसिद्द हुआ करते थे | होलिकोत्सव पर यहीं कलाभवन में बिरजू महाराज , सितारा देवी के नृत्य का साक्षात्कार हुआ था , परातों में रखे अबीर को  मोरनी की मुद्रा में नृत्य करते हुए सितारा देवी का अपने पद सञ्चालन से मंच के नीचे दर्शकों पर उड़ाने का मनमोहक दृश्य आज भी आँखों में बसा हुआ है |



फणीश्वर नाथ रेणु
                 
  ओह ! मन तो बेलगाम घोड़े सा दिशाहीन दौड़ा जा रहा है – मैं बात कर रही थी ७५-७६ की ! लेकिन रेणु जी को याद करते हुए , उनकी “ तीसरी कसम ... की बात हो और फारबिसगंज की बात न हो यह मुमकिन नहीं क्योंकि इसी मेले में तो हिरामन और हीराबाई ने रेणु की इस रचना का कथानक बुना |इस मेले में पिताजी के साथ कई बार जाना हुआ जब उनका स्थानान्तरण अररिया हुआ , नौटंकी भी देखी हम भाई -बहनों ने | पिताजी अपने विभागीय कार्यों में व्यस्त होते और हमें किसी कर्मचारी के साथ भेज देते , आज के मेलों में नौटंकियों के निम्न स्तरीय मंचन के परिप्रेक्ष्य में यह कल्पना भी दुष्कर लगती है |
                       तत्कालीन विभागाध्यक्ष से जुड़े एक और मनोरंजक प्रसंग का उल्लेख करने का मोह संवरण करना कठिन लग रहा है – डॉ. केशरी कुमार की एक आदत थी कि हमें कुछ कार्य देने के बाद वे आँखें मूंद लेते , यह मुद्रा कभी कभी तो इतनी दीर्घकालिक हो जाती कि हमें भ्रम होता कि वह सचमुच सो चुके हैं , जहाँ हम उनकी इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश करते , वे पूर्ण चैतन्य की स्थिति को प्राप्त कर सीधे -सतर हो कर बैठ जाते | एक दिन ट्यूटोरिअल की कक्षा में उन्होंने कुछ लिखने को दिया और आँखें  बंद कर सोने की मुद्रा में आ गए | एक सहपाठी था हमारा - रमेश , उस दिन केशरी कुमार की कृपा का पात्र वही बेचारा बन गया | उन्होंने उसे अपना लिखा सुनाने को कहा और एक बार फिर समाधि की अवस्था में आ गए , रमेश ने अपना लिखा सुनाते – सुनाते एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया कि केशरी कुमार पूर्ण चैतन्य की अवस्था में आ गए , और वह शब्द था – जर्रार ! उन्होंने दो बार रमेश से पूछा – क्या ? और दोनों बार रमेश ने दुहराया – जर्रार ! जब विभागाध्यक्ष ने उक्त शब्द का अर्थ रमेश से जानना चाहा तो उसकी सिट्ठी – पिट्ठी गुम हो गई | तभी उस त्रासद स्थिति उसे उबारने के ध्येय से शरदेन्दु ( पटना वि वि स्नातकोत्तर हिंदी विघाग के वर्तमान विभागाध्यक्ष ) ने उठकर कहा – सर तेज -तर्रार की तर्ज पर रमेश ने यह नया शब्द शब्दकोष में जोड़ा है | पूरी कक्षा ठहाकों में डूब गई | यह किस्सा भी मित्र शरदेन्दु ने ही मुझसे साझा किया , आभार उनका !
                       तो ऐसे -ऐसे दिग्गजों के सान्निध्य में अनुशासन का भाव हमारी पूरी कक्षा में स्वाभाविकतः बना रहता और प्रायः हम दोस्तों के मध्य एक जुमला चलता होता – “ हम बेचारे तो अनुशासन से ग्रस्त और त्रस्त हैं “ | भाषा विज्ञान की सैधान्तिकता कभी- कभार इतनी दुर्वह हो जाती कि प्रो. श्याम जी की कक्षा में बने रहना असंभव प्रतीत होने लगता , उस स्थिति में श्याम जी ब्लैक – बोर्ड की तरफ मुड़ ज्योहिं किसी तकनीकी शब्द की व्याख्या करते होते , वर्ग के पिछले दरवाजे से निकल हमारा छः – सात मित्रों का दल कैंटीन की और भाग चलता | कैंटीन के बाहर खोमचे वाले से चटपटे , मसालेदार भुन्जे का दोना ले हम कैंटीन के कोने के किसी टेबल पर जम जाते , हमारे कुछ विषयेतर मित्र भी थे , उनमें इतिहास विभाग का एक छात्र बहुत अच्छा गाता था , मित्रों को मेरे भी अच्छा गाने का मुगालता हुआ करता था उनदिनों , और फिर तो महफ़िल जमती गाने – सुनाने की | बीच – बीच में कैंटीन की मीठी चाय जो या तो पहले से ही बहुत मीठी हुआ करती थी या हमारी बेफिक्र मीठी हँसी की चाशनी उसमें घुल जाती , यह आज तक जान नहीं पाए हम , अलबत्ता जबसे डाइबिटिक हुई हूँ , उन चाय के अनगिनत छोटे – छोटे ग्लासों की चाय का स्वाद ही फीकी चाय को गले से उतारने में मेरी मदद करता है | भाषा विज्ञानं की अगली कक्षा शुरू होती प्रो. श्याम जी के इस वाक्य से , “ आज मैं ब्लैक – बोर्ड की तरफ घुमने की गलती नहीं करने वाला , वरना पूरी कक्षा में बस खाली बेंचें नजर आयेंगी “ उनके चुप होते ही हमारे ठहाकों में वह भी शामिल हो जाते |
                   ऐसी जीवंतता और जिजीविषा से भरा था हमारा बैच | समय के साथ हमारे ग्रुप के सभी मित्र जीवन में सुव्यवस्थित होते गए इसका एकमात्र कारण विद्यार्थी जीवन में गुरुजनों के आशीर्वाद का प्रचुर मात्र में मिलना ही था | आज भी हम एक – दूसरे के साथ जुड़े हैं क्योंकि अतीत की मोहक स्मृतियों से हम अबतक बंधें हैं | एक लम्बे अंतराल के बाद पद्मश्री डॉ. उषाकिरण खान द्वारा संस्थापित “ आयाम “ के वार्षिकोत्सव में आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में प्रो.राम वचन राय से मुलाक़ात हुई , अपना परिचय दे जब मैंने छान्नापात्र का जिक्र किया उनके चेहरे पर परिचय की मुस्कान आ गई और हम सभी मित्र – शरदेन्दु , कर्मेंदु शिशिर , अविनाश चन्द्र मिश्र , अलका , मोहिनी सब उन्हें याद हैं , यह जानना सचमुच सुखद आश्चर्य था | स्मृतियों का तूफ़ान सा उठ रहा था दिमाग में , सोचती रही – क्या दिन थे वे भी – बेफिक्री के आलम से भरे ,हमारी खिलखिलाहट और हँसी से गूंजते दरभंगा हाउस के गलियारे .... उन दिनों दिल को कहाँ ये गुमां था कि कल को यही दिल शिद्दत से पुकार उठेगा ..... “ दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात – दिन , बैठे रहें तस्सवुरे जानां किये हुए “ |

      मीरा श्रीवास्तव 
      राजेंद्र नगर , आरा ८०२३०१ 
      भोजपुर , बिहार

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