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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 नवंबर, 2017

कुंअर रवीन्द्र: अपने समय को परखता कवि

अनिल कुमार पाण्डेय

कवि अपने वर्तमान की तमाम विसंगतियों से ढंके हुए समय को जीता ही नहीं परखता भी है कहीं गहरे में डूबकर| परख की प्रक्रिया में वेदना और सघन अनुभूतियों की विचलित करती अन्तर्दशा, उसका अपना बहुत कम समाज का अधिक होता है| अपने आस-पास के परिवेश में यथार्थ मानवीय संभावनाओं को तलाशते हुए डूबने की प्रक्रिया में चौकन्ना वह होता जरूर है| समस्याएँ उसके सामने से आकार ले रही होती हैं तो कविता उन समस्याओं से संवेदना ग्रहण कर रही होती हैं| कुंअर रवीन्द्र अपने समय के ऐसे ही कवि हैं जो आकार और संवेदना के मध्य खाली स्पेस को भरने का सफल प्रयास करते दिखाई देते हैं|
चित्र: अवधेश वाजपेई

इनकी कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास होता है कि समय का समकाल एक डरावने आकार में हमारे सामने खड़े होकर हमें ललकार रहा है तो संवेदना का आदर्श उस ललकार के प्रतिरोध में एक माहौल बना रहा है| इस माहौल में कवि के “सामने है/ एक दृश्य/ या उसका चेहरा/ बेहद कोमल रंगों से भरा/ मगर/ एक लम्बी अंतहीन दूरी/ और सन्नाटे की काली लकीर भी/ झुर्रियों की तरह खिंची हुई/...सामने है/ उसका चेहरा/ या एक दृश्य/ छुअन से लजाई/ एक किनारे सिमटी, बहती नदी/ मिलन की प्रफुल्लता से भरा/ क्षितिज/ और.../ नई सृष्टि की कल्पना में/ अपलक आकाशगंगा को निहारता/ क्रौंच का एक जोड़ा भी” अब यह कवि का साहस है कि इन सब के साथ जुड़ते हुए ‘नई सृष्टि की कल्पना’ को साकार करने का सार्थक उपक्रम वह कर सके| साहस इसलिए भी क्योंकि हमारे समकालीन परिवेश में पुराने सांचे में ही नई संभवनाओं को रंगने का उपक्रम बड़ी सिद्दत से किया जा रहा है जबकि कवि अपने व्यवहार में किसी भी गढ़े गये सांचे और रंग में स्वयं को देखे जाने से परहेज करता है| वह “लाल, नीला केशरिया या हरा/ नहीं होना चाहता” वह अपनी भूमिका में “इन्द्रधनुष होना चाहता” है “धरती के इस छोर से/ उस छोर तक फैला हुआ|”

अनिल कुमार पाण्डेय

कवि निश्चित ही सामाजिक जीवन की विसंगतियों से आक्रान्त है| हमारे तथाकथित सभ्य समाज में भूमंडलीकरण का यथार्थ मनुष्यता को बाजार की वस्तु के रूप में परिवर्तित करके रख देगा, यह किसी को नहीं खबर थी| कवि का यह कहना “जब से हम सभ्य हुए/ बस तब से ही/ ढूंढ रहा हूँ/ उस आदमी को/ जो अपने बीच कहीं/ किसी शहर किसी गाँव में/ गम हो गया है/ बाज़ार में” मानवीय मार्ग से बिछड़कर बनावटीपन की हद तक प्रवेश कर चुके मनुष्य का आत्मीय बयान है| यह बयान इतना विश्वसनीय हो गया है कि हमारी अपनी समझ पूर्ण रूप से कुंद हो चुकी है| समझ का कुंद होना जिन्दा होते हुए भी मरे मुर्दे की शक्ल में सांस लेना है| यह इसलिए भी क्योंकि हमारे सुख-समृद्ध होने की निशानी में आत्म निर्णय की भूमिका न होकर किसी दूसरे के डर और भय का आतंक है--“मैं चीख कर बोला/ हम आजाद है/ अपनी कनपटी पर टिकी हुई/ पिस्तौल को छुपाते हुए/ उसने कहा/ हम आजाद हैं/ अभी-अभी लुटी/ अस्मत के दाग शरीर से मिटाते हुए/ फिर सबने कहा एक स्वर में/ हम आजाद हैं/ और डूब मरे चुल्लू भर पानी में/ शर्म से|”

राजनीतिक पैंतरेबाजी की सभी प्रक्रियाओं को झेलता हुआ जितना अधिक आम आदमी पस्त है कवि उससे कहीं अधिक लोकतंत्र के भविष्य को लेकर हैरान है| ऐसा तंत्र जहाँ सबको समान अधिकार हो और सबके द्वारा शासन की भागीदारी तय हो, वहां आम आदमी का अभी तक यह प्रश्न करना कि “अरे भाई! लोकतंत्र का मतलब समझते हो?” प्रजा और राजा की मान्य धारणाओं पर सबसे बड़ा मजाक है| यह मजाक कैसे यथार्थ होकर हमारे राजनीतिक परिवेश की तमाम बनी-बनाई धारणाओं को ध्वस्त करता है वह इस कविता में आसानी से देखा जा सकता है
मली हुई तम्बाखू/
होठ के नीचे दबाते हुए
उसने पूछा
अरे भाई! लोकतंत्र का मतलब समझते हो?
और सवाल ख़त्म होते ही
संसद की दीवार पर
पीक थूक दी

थोड़ी दूर पर
उसी दीवार को
टांग उठाये एक कुत्ता भी गीला कर रहा था

लोकतंत्र का अर्थ
सदृश्य मेरे सामने था|”

चित्र: अवधेश वाजपेई

ऐसे अर्थ में लोकतंत्र का ही चेहरा नहीं बेनकाब होता हमारे अपने समाज का ढांचा भी बेनकाब होता है| यह भी सच है कि बदले हुए समय में राजनीतिक सच एक षड्यंत्र के रूप लेकर घिरे हुए बादल के रूप में हमें डरा रहा है| बरसने की क्षमता उसमें नहीं है लेकिन हवा के वेग से बस्ती-उजाड़ की संभावनाएं तेज तो हो ही गयी हैं| ऐसे लोकतान्त्रिक सच के यथार्थ में उसे पता है कि “जिस तरह/ बनैले सूअर को/ हांका लगा कर,/ घेरकर मारा जाता है/ वैसे ही/ इस देश के जन/ मारे जा रहे हैं/ और मारे जायेंगे”

कवि की नौवीं कविता ने बहुत कुछ कहने के लिए प्रेरित किया है| लेकिन सच कहूं तो यहाँ समीक्षा-दृष्टि मूक हो गयी है और यदि रोता भी हूँ तो इस संवेदनशील कविता का अपमान है| इसलिए समय को कुछ ऐसा बनाने की जिद जरूर पाला जा सकता है कि कवि ऐसी कविताओं के स्थान पर कुछ दिखाने के लिए बाध्य हो| कवि की ऐसी बेजोड़ कविताई के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ!
००


युवा आलोचक अनिल कुमार पाण्डेय: पंजाब विश्वविद्यालय में शोध छात्र है।



कुंअर रवीन्द्र की कविताएं: https://bizooka2009.blogspot.in/2017/10/1.html?m=1

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