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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 दिसंबर, 2016

समूह के साथी की कहानी

नमस्कार साथियों,

आइये आज पढ़ते हैं समूह के साथी की कहानी।

कहानी पढ़कर अपने विचार रखें ।

कान्हा

‘खन्न’ की आवाज सुनते ही झटकें से आँखे खेाली, अलार्म में मोती बिखरने की ध्वनी मुझे बहुत
पंसद है।  दो सैकेन्ड के लिए अपनी  आँखे  मूंदे रात के सपने के बारे में सोचने लगी।
आज फिर वही ‘कान्हा’ का सपना आया,पिछले कई दिन से मैं रोज कान्हा को अलग-अलग रूपों में देख रही हॅूं ।कभी नन्हा सा माखन-चोर रुप तो कभी गोपियों से घिरा अनुपम रुप ।पर माँ को ये बताना तो......कई उपदेश सुनना है।‘नहीं बेटा ,यह शिर्क है,कूफ्र है।ये आयत पढ़,वो कलमा पढ़...।
नमाज ना निकल जाए इस चिंता से मैंने फटाफट उठ वुजू किया और नमाज पढ़ने बैठ गई।
नमाज पूरी होते ही , माँ की चाय की ख़ुश्बू से खींची किचन में आ गई।‘चल,बिस्कीट की प्लेट उठा ले चल’कहते हुए माँ चाय की ट्रे उठा हॉल  में आ गई।अब्बा पहले से ही वहाँ अखबार लिए बैठे थे। सब अपना कप उठा चुस्कियाँ लेने लगे।अब्बा बोले‘देखो,फिर कुम्भ मेले में भगदड़ मच गई है’
‘इतने लोग आखिर इकट्टठें ही क्यों होते हैं?’ का यह सवाल सुन मैं झट से बोल पड़ी - ‘श्रद्धा है  माँ उनकी,उर्स में भी तो इतनी ही भीड़ होती हैकिनहीं?           

अब्बू चशष्में के उपर से घूर कर देखते हुए बोले‘तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है आज कल?,यह फाइनल ईयर है। नम्बर अच्छे नहीं आए तो बी.ए. करने का कोई मतलब नहीं।बहुत कम्पीटीशन है आजकल,किसी मुकाम पर पहुचना है तो अपने को साबित करना होगा,बच्चे।’
मैंने पूरे आात्मविष्वास से कहा‘अब्बा फस्र्ट डिविजन तो पक्का है.... डिसटिंगशेन की को शि श है।‘ शबास’ कहते हुए अब्बा फिर अखबार में गुम हो गये। माँ कुछ कहे उससे पहले ही मैं झट बर्तनों को उठा किचन में चल दी।माँ को मेरी पढ़ाई से ज्यादा फिक्र मेरी शा दी की थी। मेरी बढ़ती कक्षाओं की जमात उनकी माथे की लकीरें केा बढ़ा रही थी। ‘मुकाबले का दुल्हा’ ,‘अच्छा द्यर’ वगैरह-वगैरह । पर खुदा का शु क्र है अब्बु मुझे किसी मुकाम पर देखना चाहते है। खुद भी मदरसा बोर्ड के खजांची होने के कारण शि क्षा की अहमियत समझते थे।छोटा भाई अभी लाड-दुलार के कारण अपनी उम्र से भी छोटा था।

     कालेज के लिए जाते समय अपनी स्कुटी को सड़क  के किनारे लगे कचरा पात्र से जैसे ही निकाला मेरी नजर एक छोटे से बच्चे पर पड़ी ,कचरा बीनने में मशगूल ,अपने काम की थैलियों को चुनता,झड़काता और थैलियों में भरता.....। पता नहीं उसको देख कुछ भितर तक उमड़ा और मैनें वहीं स्कुटर के ब्रेक लगाए ।उसे इषारे से अपने पास बुलाया,पहले वह थोड़ा सहमा पर मेरी मुस्कुराहट देख मेरे पास आया ।मैंने अपने बैग से ‘टिफिन’ निकाला ,और उसमें रखे दो आलू के परांठे उसकी ओर बढ़ा दिए। वह खुषी से उन्हे ले पास ही बैठी अपनी छोटी बहन की ओर दौड़ा और दोनों टुकड़े तोड़-तोड़ खाने लगे।उस बच्चे का मुस्कुराता चेहरा मुझे अपने रात ‘कान्हा’ से मिलता-जुलता लगा।मेरा दिल घड़कने लगा ।मैने हेलमेट पहने -पहने स्कुटी स्टार्ट कर,फिर पिछे मुड़ कर देखा ,हुबहु वही मेरा सपने वाला कान्हा ही तो है। मैं आगे बढ़ गई।
कॉलेज प हूँ च  जब मैंने यह किस्सा सविता को सुनाया तो पहले तो वह खूब हॅंसी ,फिर मुझे छड़ते हुए बोली‘क्या बात है मेरी राधा?....लगता है कोई कान्हा आने ही वाला है। वैसे भी कान्हा तो प्रेम का दूसरा नाम है,तो प्रेम होने वाला है मेरी लाडो को?’
मैने तुनकते हुए कहा‘ तेरी तो अक्ल ही छोटी है सविता! कान्हा ‘प्रेम’ का दूसरा नाम है तो, प्रेम की विषालता,गहराई,निष्छलता को भी देख। उनका प्रेम सिर्फ ‘गोपी’ प्रेम नहीं ,वह तो कण-कण में व्याप्तता का प्रतिक है,सर्वव्यापकता...’, बीच में ही रोकते हुए वह बोल पड़ी- ‘बस-बस तेरा यह लेक्चर बाद में सुनूंगी, अभी तो खुराना मैम का पीरियड है,जल्दी चल वो आगई होगी।’
काॅलेज से घर जाने के लिए जैसे ही मैंने स्कूटी उठाई,सविता झट से उस पर बैठते हुए बोली‘आज भाई की बाइक खराब थी,वो मेरा स्कुटर ले गया,चल..आज तुझे ही छोड़ना पड़ेगा।मैं बिना कुछ कहे ,उसे बिठा चल दी। कुछ दूर चलने पर वह विल्लाई‘अरे-अरे रुक-रुक ‘मैंने दोनों हाथों से ब्रेक लगाया और पूछा -‘क्या हुआ?’
सविता ने नीचे उतरते हुए कहा ‘आज मंगल है, बालाजी के मंदिर के आगे से यूॅ ही ले जायेगी?’ कहते हुए सविता उतर कर मंदिर की ओर चल दी।
मुझे भी स्कुटी साइड में लगा अंदर जाना ही था।
तब तक सविता ,सिर पर पल्लू डाल,हाथ जोड़ अपनी फरमाईषों की झड़ी में मषगूल थी।मैंने बालाजी को ‘सलाम’ किया और एक पीर की तरह सिर पर हाथ फेरने की दुआ करते हुए बाहर आ गई। मेरे लिए मंदिर मैं जाना कोई पूजा नहीं ,मैं मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करती पर मेरी सहेली की दोस्ती में कोई ‘कसक’ ना रहे इसलिए जाना जरुरी था।
द्रवाजे पर घंटी बजाने से पहले मैंने अपने सिर पर लगे तिलक को पौंछा, माँ की खु शी भी मेरे लिए जरुरी थी.
               
दूसरे दिन सुबह जब नींद खुली तो फिर तो फिर से आये कान्हा के सपने की सोच चेहरे पर एक मुस्कुराहट खिल गई।फजर (सुबह)की नमाज में देरी होते देख मैं झट से उठ बैठी। दो दिन बाद ही मेरी परीक्षा शुरु होने वाली थी और आज मुझे अपना प्रवेश पत्र लेने जाना था। नाष्ता जल्दी-जल्दी खत्म कर जैसे ही मैं घर से निकलने लगी माँ ने मुझे 500 का नोट थमाते हुए कहा-‘देख, यह सदका(विे शे ष दान ) है। रास्ते में किसी गरीब मुसलमान को दे देना।’ मेने गर्दन हिलाते हुए नोट पर्स में डाल स्कुटी उठा चल पड़ी। थोड़ी दूर पर जाते ही फिर वही बच्चा मुझे दिखा और मुझे देखते ही एक ‘भोली मुस्कान’ बिखेरता ठिठक गया। मैंने स्कुटी रोकी, वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया ,षायद इस आस से कि मैं आज फिर उसे टिफिन में से कुछ दूँगी । ‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैंने हेलमेट उतारते हुए पूछा।
‘कृष्णा’ उसने शरमाते हुए कहा।नाम सुनते ही मेरा हेलमेट वहीं रुक गया।प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरते हुए पूछा‘स्कूल जाते हो?’ ‘हाँ’ में उसकी गर्दन हिलते देख मैंने कहा ‘कब’ उसने शरमाते हुए कहा‘कभी-कभी’ ।
पर्स से 500 का नोट निकालते हुए मैंने उससे कहा-‘रोज जाया करो और यह पैसे अपनी माँ को दे देना। उसने सहमते हुए पैसे लिए और खुषी से ‘थैंकु’ बोला और दौड़ गया।मैं मुस्कुराते हुए हेलमेटपहन चल दी।
आज जुम्मेरात है और कल मेरा पहला पेपर है।मैं ख्वाजा जी की दरगाह जाने के लिए सुबह-सुबह नहा-द्यो कर जाने लगी तो देखा अम्मा भी जाने को तैयार है,और जैसे ही हम द्यर से निकलने लगीं पीछे से अब्बा की आवाज आई‘अरे उर्स के महिने में तुम लोग क्यों जारही हो? बाद में चली जाना।’पर हम दोनों ही कान बंद कर निकल पड़े।
दरगाह में भीड़ का आलम देखते ही बनता था। मैं और माँ  जैसे-तैसे दरगाह में अंदर तो  पहूँच  गए पर आस्ताने शरीफ के बाहर इतनी भीड़ थी कि हम तीन चक्कर उसके बाहर ही लगा चुके थे। जैसे ही आस्ताने षरीफ का गेट आता ,तभी भीड़ का धक्का आता और हम आगे निकल जाते । मैंने माँ का हाथ कस कर पकड़ा था,पर इस बार जैसे ही आस्ताने का गेट आया , माँ  ने पूरा जोर लगा,खुद को अंदर धकेल दिया , माँ मेरे हाथ से छूट गई,बस उनका हरा दुप्पट्टा ही नजर आ रहा था,मैं भी पूरी ताकत लगा माँ के पीछे हो ली। माँ का हरा दुप्पट्टा ही मेरी नजरों के सामने था।भीतर प हूँ च बस कलमा बुदबुदाते, माँ का हरा  दुप्पट्टा देखते ,सलाम फेरते भीड़ के द्यक्कों में कब बाहर आगई पता ही नहीं लगा। बाहर निकलते ही माँ का हरा दुप्पट्टा मेरा नजरों से ओझल हो गया ,मैं घबरा गई। माँ को सफोकेषन ना हो जाए,वे बेहोष ना हो जाए,इसी बैचेनी से जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगी। तभी देखा माँ का पैर अखड़ गया और वेा नीचे गिरने लगी,तभी दो नन्हे हाथेां ने कहीं साइड से आ, उन्हे थाम एक ओर खिंच लिया। माँ ने अपना संतुलन बनाते हुए ,अपने को खड़ा किया। तभी मैं दौड़ते हुए माँ के पास पहुची
‘माँ तुम ठीक तो हो।हाँफते हुए उन्होने ‘हॅूं- कहते हुए गर्दन हिलाई।
मेरी नजर जब उस बच्चे पर गई जिसने माँ को संभाला था, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा।वो‘कृष्णा’ था। ‘जीजी,यह तुम्हारी माँ है?’

मैंने हाँ  में जबाब देते हुए ही पूछा‘अरे कृष्णा तुम यहाँ ?’
मेरे सवाल को सुन उसने धीरे से कहा‘आज छठी है ना इसीलिए...’
मेरी आँखें डबडबा आई। मेरे सपनों का कान्हा मेरे सामने था.....प्रेम का प्रतिरुप.....ना अल्लाह, ना भगवान...बस प्रेम और प्रेम।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

राहुल चौहान:-
मुसलमानी कट्टरता की
सच्चाईयो के बीच यह कहानी बदलाव की आशा का करंट उदाहरण बनती है.....
कहानी का स्वागत

विजय श्रीवास्तव:-
ना अल्लाह , ना भगवान ... बस प्रेम . ...   हिन्दू-मुसलमान नहीं बस इंसान ।
बढ़िया कहानी ।

पूनम:-
मानवीय भावना तथा संवेदनशीलता की मौली मे बंधी हुई कहानी से गुजरने के बाद भावुक हुआ मन बार बार पढ़ने योग्य है यह कथा बहुत बधाई और शुभकामनाये

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