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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 दिसंबर, 2016

राकेश रोहित की कविताएं

नमस्कार साथियो,

आइये पढ़ते हैं समूह के साथी की कुछ कविताएँ।

अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत जरूर कराएं।

1. कविता में उसकी आवाज

वह ऐसी जगह खड़ा था
जहाँ से साफ दिखता था आसमान
पर मुश्किल थी
खड़े होने की जगह नहीं थी उसके पास।

वह नदी नहीं था
कि बह चला तो बहता रहता
वह नहीं था पहाड़
कि हो गया खड़ा तो अड़ा रहता।

कविता में अनायास आए कुछ शब्दों की तरह
वह आ गया था धरती पर
बच्चे की मुस्कान की तरह
उसने जीना सीख लिया था।

बड़ी-बड़ी बातें मैं नहीं जानता, उसने कहा
पर इतना कहूँगा
आकाश इतना बड़ा है तो धरती इतनी छोटी क्यों है?
क्या आपने हथेलियों के नीचे दबा रखी है थोड़ी धरती
क्या आपके मन के अँधेरे कोने में
थोड़ा धरती का अँधेरा भी छुपा बैठा है?

सुनो तो, मैंने कहा
.......................!!

नहीं सुनूंगा
आप रोज समझाते हैं एक नयी बात
और रोज मेरी जिंदगी से एक दिन कम हो जाता है
आप ही कहिये कब तक सहूँगा
दो- चार शब्द हैं मेरे पास
वही कहूँगा
पर चुप नहीं रहूँगा!

मैंने तभी उसकी आवाज को
कविता में हजारों फूलों की तरह खिलते देखा
जो हँसने से पहले किसी की इजाजत नहीं लेते।

2. एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर

हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?

आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।

3. छतरी के नीचे मुस्कराहट

छतरी के नीचे मुस्कराहट थी

जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,

उसकी आँखें बारिश से भींगी थी

और ऐसा लग रहा था जैसे 

भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल खिले हों!

जैसे पलकों की ओट में

छिपा था उसका मन

वैसे छतरी ने छिपा रखा था

उसके अतीत का अंधेरा।

पतंग की छांव में एक छोटी सी चिड़िया

एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी थी।

4. मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं

मेरी कविता में जाग्रत लोगों के दुःख हैं.

मैं कल छोड़ नहीं आया, 

मेरे सपनों के तार वहीं से जुड़ते हैं।

मैं सुबह की वह पहली धूप हूँ –

जो छूती है

गहरी नींद के बाद थके मन को।

मैं आत्मा के दरवाजे पर

आधी रात की दस्तक हूँ।

जो दौड कर निकल गए

डराता है उनका उन्माद

कोई आएगा अँधेरे से चल कर

बीतती नहीं इसी उम्मीद में रात।

मैं उठाना चाहता हूँ

हर शब्द को उसी चमक से

जैसे कभी सीखा था

वर्णमाला का पहला अक्षर।

रुमान से झांकता सच हूँ

हर अकथ का कथन

मैं हजार मनों में रोज खिलता

उम्मीद का फूल हूँ।

मेरी कविता में हजारों लोगों की

बसी हुई है

एक जीवित-जागृत दुनिया।

मैं रोज लड़ता हूँ

प्रलय की आस्तिक आशंका से

मैं उस दुनिया में रोज प्रलय बचाता हूँ।

मेरी कविता में उनकी दुनिया है

जिनकी मैं बातें करता हूँ

कविता में गर्म हवाओं का अहसास

उनकी साँसों से आता है।

5. बाज़ार के बारे में कुछ विचार

ख़ुशी अब पुरानी ख़ुशी की तरह केवल ख़ुश नहीं करती

अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद

थोड़ी क्रूरता भी।

बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं

और नए दाम भी।

वो चीज़ें जो बिना दाम की हैं

उनको लेकर बाज़ार में

जाहिरा तौर पर असुविधा की स्थिति है।

दरअसल चीज़ों का बिकना

उनकी उपलब्धता की भ्राँति उत्पन्न करता है।

यानी यदि ख़ुशी बिक रही है

तो तय है कि आप ख़ुश हैं (नहीं तो आप ख़रीद लें)

और यदि पानी बोतलों में बिक रहा है

तो पेयजल संकट की बात करना

एक राजनीतिक प्रलाप है।

ऐसे में सत्ता के तिलिस्म को समझने के कौशल से बेहतर है

आप बाज़ार में आएँ

जो आपके प्रति उतना ही उदार है

जितने बड़े आप ख़रीदार हैं।

बाज़ार में आम लोगों की इतनी चिन्ता है

कि सब कुछ एक ख़ूबसूरत व्यवस्था की तरह दीखता है।

कुछ भी कुरूप नहीं है

इस खुरदरे समय में

और अपनी ख़ूबसूरती से परेशान लड़की

जो थक चुकी है बाज़ार में अलग-अलग चीज़ें बेचकर

अब ख़ुद को बेच रही है।

यह है उसके चुनाव की स्वतंत्रता !

सब कुछ ढक लेती है बाज़ार की विनम्रता।

सारे वाद-विवाद से दूर बाज़ार का एक खुला वादा है

कि कुछ लोगों का हक़ कुछ से ज़्यादा है

और आप किस ओर हैं

यह प्रश्न

आपकी नियति से नहीं आपकी जेब से जुड़ा है।

यदि आप समर्थ हैं

तो आपका स्वागत है उस वैश्विक गाँव में

जो मध्ययुगीन किले की तरह ख़ूबसूरत बनाया जा रहा है

अन्यथा आप स्वतंत्र हैं

अपनी सदी की जाहिल कुरूप दुनिया में रहने को।

बाज़ार वहाँ भी है

सदा आपकी सेवा में तत्पर

क्योंकि बाज़ार

विचार की तरह नहीं है

जो आपका साथ छोड़ दे।

विचार के अकाल या अंत के दौर में

बाज़ार सर्वव्यापी है, अनंत है।

परिचय :

नाम : राकेश रोहित

जन्म : 19 जून 1971 (जमालपुर).

संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).

कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि.

पहली कहानी "शहर में कैबरे" 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित.

"हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित. राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन. 

सक्रियता : हंस, कथादेश, समावर्तन, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन,समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर,सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला, सेतु आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपटआदि का प्रकाशन. अनुनाद, समालोचन, पहली बार,  असुविधा, स्पर्श, उदाहरण आदि ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित.
 
संप्रति : सरकारी सेवा.

ई-मेल - rkshrohit@gmail.com

प्रस्तुति:- बिजूका
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टिप्पणियां:-

राकेश रोहित:-
कल थोड़ा व्यस्त था। आज समूह में  अपनी कविताएँ  देखकर बहुत खुशी हो रही है। कविता पढने और पसंद करने के लिए आप सभी साथियों का हृदय से आभारी हूँ। आपकी प्रतिक्रिया ही मेरी रचनात्मकता का संबल है। आप सबों  का बहुत- बहुत धन्यवाद! आदर सहित!

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