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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 दिसंबर, 2016

विमल कुमार की कुछ रचनाएँ

सुभोर साथियो,

आज प्रस्तुत हैं विमल कुमार की कुछ रचनाएँ ।
इन्हें पढ़कर अपने विचार जरूर रखें ।

कविताएँ :

1. आस में हूँ

अब सारे लालटेन बुझ गए हैं
इसलिए मैं कोई लालटेन नहीं जलाता हूँ
चाहे पहाड़ पर या अपने घर में
बहुत धुआँ निकलता है इससे
कई बार तो घर भी जला है
काली हो गई है कोठरी
अब तो मैं नई रोशनी की तलाश में हूँ
दुनिया बदलती है गर
तो कविता भी बदले
इसी आस में हूँ।

2. रसोई घर ही था मेरा दफ़्तर

रसोई घर ही था मेरा दफ़्तर
सुबह उठ कर
बर्तन धोना
किसी फ़ाईल पर जमी धूल पोछने से अधिक तकलीफ़देह था

सब्ज़ी काटने में उँगलियाँ उसी तरह कट जाती थीं कभी
जिस तरह मेरा बॉस मुझे काट खाने को दौड़ता था ।

इस दफ़्तर में मुझे नहीं थी कोई आज़ादी
खाना भी औरों की पसन्द से बनाना होता था ।
हुक़्म भी चलते थे मुझ पर
डाँट भी पड़ती थी --
आज बहुत तेज़ है नमक दाल में

इस दफ़्तर में धुआँ बहुत था
नहीं था कोई रोशनदान
दिन-रात काम करो
पर नहीं था कोई
इसका कद्रदान

रोज़ आते-जाते
मैं हो गई थी परेशान

रसोईघर ही मेरा दफ़्तर था
जो अल्ल-सुबह खुलता था
तो देर रात बन्द होता था

इसी में जीना था मुझे
इसी में दफ़्न भी होना था,

ये एक ऐसी नौकरी थी
जिसमे मुझे कभी रिटायर नहीं होना था

लेकिन इसमें कोई तनख़्वाह भी नहीं थी मुकरर्र
न कोई नियुक्ति-पत्र
पेंशन में भी
नहीं था नसीब प्रेम
फिर भी धनिए और पराँठे की ख़ुशबू में
याद कर् लेती हूँ तुम्हें

रसोईघर ही मेरा दफ़्तर है
मैं यही मिलती हूँ हर किसी से
पसीने से लथ-पथ ।
गर्मी से परेशान

यही एक झपकी भी ले लेती हूँ
बीच-बीच में कभी-कभी
यहीं एक ख़्वाब भी देख लेती हूँ

इसी रसोई में एक छोटा-सा आसमान भी बनाया है
अपने लिए मैंने
एक कोने में कहीं

उड़ रही हूँ
इसी आसमान पर अब
एक परिन्दे की तरह
चारों तरफ हवा में अपने पंख फैलाए ...

3.शब्दों का ताजमहल

मैं शाहजहाँ नहीं हूँ
नहीं है मेरे पास
इतनी धन-दौलत
हूँ एक क्लर्क मामूली-सा

सौभाग्य से हैं मेरे पास
कुछ शब्द
और मैं करता हूँ
कुछ काग़ज़ भी काला
मैं शब्दों का एक ताजमहल
बनाना चाहता हूँ
तुम्हारे लिए

मुझे डर है और इसलिए माफ़ करना मुझे
कहीं मैं अपनी ज़ि“न्दगी में अगर
तुम्हारे लिए
शब्दो की एक टूटी हुई
मस्जिद भी नहीं बना पाया तो तुम कितना हँसोगी
मेरे प्रेम पर

क्या तुम घर के
-- रूम में
रखोगी मेरे इस ताजमहल को
या
टूटी हुई मस्जिद को
जिसको लेकर काफ़ी मुक़दमा भी चला
चुल्लू में
और ख़ून-ख़राबे भी हुए ।

4. स्थगित लड़ाई

मैं अब तक लड़ता रहा
समाजवाद से
पर मेरे भीतर ही छिपा था
ब्राह्मणवाद कुंडली मारे
मैंने स्थगित कर दी अपनी लड़ाई
लौट आया हूँ
अपनी रणभूमि से
सारे हथियार डाल दिए हैं
शिविर में
रातभर मुझे लड़ना है
ख़ुद से
फिर कल निकलूंगा
सुबह सुबह
एक नए जोश से
कल कोई मुझे
मेरे गुनाहॊं के लिए न कोसे।

3.आत्मा से प्रेम

चाहता हूँ तुम्हारी आत्मा से करना प्रेम
पर बीच में आ जाती है
तुम्हारी देह
और आत्मा भी रहती है
देह के कोटर में ही
और यह देह कितनी लुभावनी है
कितने जुगनू झिलमिलाते हैं
इसके अंधेरे मे
क्या ठीक है
देह की नदी पार कर
हर बार पहुँचना आत्मा तक
आत्मा को फिर एक पुल बनाकर
देह के जंगल में विचरना
मरने के बाद नहीं रहती है 
यह देह
राख ही तो हो जाती है
क्या याद करते हुए इस राख को
नहीं पहुँच सकता मैं तुम्हारी आत्मा की
घाट की सीढ़ियों के किनारे
यह प्रशन है अनुत्तरित
मेरे सामने अब तक
सच्चा प्रेम
छिपा है वाकई
क्या किसी स्मृति में ही ?
यह प्रेम दर‍असल
कोई प्रेम नहीं
जिसकी नहीं है कोई बची हुई स्मृति
महज रोमांच नहीं है
नहीं है केवल उत्तेजना भर
यह प्रेम !
जो हमने किसी क्षण
पाया था तुम्हारे साथ बैठ
अचानक, अनायास
एक दिन यूँ ही...
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कवि परिचय:

नाम - विमल कुमार
जन्म-09 दिसम्बर1960 
जन्म स्थान-गंगाढ़ी, रोहतास, सासाराम, बिहार

कुछ प्रमुख कृतियाँ-
सपने में एक औरत से बातचीत (1992); 
यह मुखौटा किसका है (2002),
पानी का दुखड़ा (कविता-संग्रह)।
चाँद@आसमान.कॉम (उपन्यास)
चोर-पुराण (नाटक) कॉलगर्ल (कहानी-संग्रह)

--प्रस्तुति-बिजूका समूह

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टिप्पणियां:-

प्रदीप मिश्रा:-
पहली कविता में कवि एक स्टेटमेंट से बहुत अच्छी कविता की अपेक्षा बनाता है। लेकिन अंत में हड़बड़ी कर बैठता है। मुझे लगता है पहली कविता अधूरी है।

दूसरी कविता के कथ्य प्रभावशाली हैं। लगता है कि किसी स्त्री की संवेदना है। लेकिन दुहराव और सही संपादन का ना होना कविता के आवेग को कम करता है।

डॉ सुनीता:-
विमल जी ! गंभीर लेखक हैं। कविता , व्यंग्य उपन्यासकार के तौर पर चर्चित है।
मझे हुए पत्रकार हैं।
तीनों कवितायें बहुत उम्दा हैं। 'स्थगित लड़ाई' बहुत पसंद है।

प्रदीप मिश्रा:-
विमल जी हमारे समय के वरिष्ठ और महत्वपूर्ण कवि हैं। ये कवितायेँ उनके कद के अनुरूप नहीं हैं। बीच बीच में कुछ पंक्तियाँ मिल रहीं हैं। मुक्कमल कविता के तौर पर विशेष प्रभाव नहीं। सामान्य भाषा में कहें तो कविता का निर्वाह ठीक से नहीं ही रहा है।

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