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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

18 दिसंबर, 2016

भागचन्द गुर्जर की कहानी- गली

नमस्कार साथियो,

आज पढ़ते हैं भागचन्द गुर्जर जी की एक कहानी गली।

साथियों पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ।

कहानी-

गली

वह एक लोहे के पाईप बनाने की फैक्ट्री थी। उन दिनों मैं भी उसी में काम करता था। फैक्ट्री का मालिक बहुत ही घाघ था। और सच पूछो तो उसका मैनेजर सतीश उससे भी ज्यादा घाघ था। जब मुझे वहाँ काम करते हुए एक-दो महीने गुजरे तो मुझे यह अहसास हो गया कि मालिक मजदूरों का जमकर शोषण कर रहा है। एक बार तो मैंने काम छोड़ने का मन बना लिया था, पर उन दिनों मुझे पैसों की सख्त आवश्यकता थी। मेरी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी और मै कम्पटीशन दे रहा था।
फिर उन मजदूरों का इस तरह शोषण होता देख मेरी भी संवेदना जागी और मैं उनके दुःख से वाबिस्ता होने लगा। जब मुझे वहाँ काम करते पूरा एक साल हो गया तो मैं उन्हें संगठित करने की सोचने लगा।
सुबह आठ बजे ही एक खटारा सी बस हमें हमारे घरों से लाती थी और सही 9 बजे हमें फैक्ट्री पहुंचा देती थी। बस भी बड़ी अजीबोगरीब थी। न उसमें आम बसों की तरह खिड़कियाँ थी और ना ही गेट । खिड़की के नाम पर बस में एक जाली थी और गेट के स्थान पर लोहे का शटर लगा हुआ था जैसा की दुकानों में लगा होता है। सभी मजदूर बस में भेड़ बकरियों की तरह ठूंस दिये जाते थे। 9 बजे बस फैक्ट्री पहुँचती थी। बस रूकते ही घर्र........चर्र........ की आवाज के साथ शटर खुलता। सभी मजदूर एक-एक कर बाहर निकलते और फैक्ट्री के अन्दर समाते जाते। मैन गेट पर पप्पू सभी की हाजरी भरता। बिल्कुल ऐसा दृश्य होता जैसे किसी पुलिस की गाड़ी से अपराधी जेल में प्रवेश कर रहे हो। जब हम सभी मजदूर अन्दर घुस जाते तो गार्ड मैन गेट पर ताला लगा देता।
अन्दर घुसते ही हम सभी मजदूर ऑयल ग्रीस से सनी हुई तथा लोहे की जंग के पीले पन से सरोबार हुई वर्दी पहनते। और फिर सभी अपने अपनेकाम में लग जाते। हमारी आपस में बहुत कम बातचीत हो पाती थी। सभी के काम बंटे हुए थे। आते ही सभी भूत की तरह काम पर लग जाते थे। शाम तक हमे सर उठाने की भी फुरसत नहीं मिलती थी। दोपहर में एक से दो बजे के बीच एक घन्टे का लंच होता था। उसमें भी किसी को बाहर जाने की इजाजत नहीं थी। हर मजदूर अपने खाने का डिब्बा साथ लेकर आता था, जिसे खोलकर बैठ जाता था। किसी को बीड़ी सिगरेट या गुटखा मंगवाना हो तो गार्ड को पैसे दे देता था। गार्ड ही उनके लिए यह सब सामान उपलब्ध करवा देता था।
अजीब, दमघोटू और निर्जिव सा माहौल था। सभी मजदूर कुएँ के मेंढ़क की तरह हो गये थे। फैक्ट्री में काम करने वाले अधिकांश मजदूर बिहार के थे। उनमें कुछ मेरी तरह पढ़े लिखे और जागरूक किस्म के मजदूर भी थे। वे जानते थे कि हमारा शोषण हो रहा है। पर उन्हें अन्य मजदूरों से इस बारे में बात करने के अवसर ही नहीं मिल पाते थे।
और फिर हमारे आपस में मिलने जुलने के अवसर बने। वह एक गली थी। वह फैक्ट्री के बिल्कुल अन्तिम छोर पर बनी हुई थी। वैसे यह फैक्ट्री का ही हिस्सा थी। गली लगभग आठ फुट चौडी तथा तीस फुट लम्बी थी। गली का फर्श पक्का था। फैक्ट्री का तमाम कूडा कबाड यही पटका जाता था। फिर भी कुछ जगह बची रह जाती थी और यह बची हुई जगह ही हमारे लिए उपयोगी हुई। मशीनों के कान फोडू शोर से निजात पाने के लिए मजदूर यहीं आते थे। जब किसी को मोबाईल पर बात करनी हो तो गली ही मुफीद जगह थी। यहाँ आने के बाद मशीनों का शोर बहुत कम सुनाई पडता था। कबाड एक कोने में पड़ा रहता था, बाकी जगह को हम साफ-सुथरी रखते थे।
यह सब धीरे-धीरे हुआ था। पहले सभी यहाँ मोबाईल पर बात करने के मकसद से ही आते थे। फिर जब कभी बिजली चली जाती तो सभी मजदूर गली में इकट्ठे हो जाते और अपने सुखः दुःख की बातें करते। मुझे लगा कि यही गली हमें संगठित करेगी। मैं दोपहर में एक-दो मजदूरों के साथ लंच यही करने लगा। फिर तो हमारी देखा-देखी और भी कई मजदूर वही बैठकर खाना खाने लगे। इस तरह गली हमारी पसन्दीदा जगह बन गई।
और एक दिन जब सभी मजदूर बैठकर यहाँ खाना खा रहे थे। मैंने बात छेड़ दी, क्या हम बंधुआ मजदूर है? आखिर क्यों हम ऐसा जीवन जी रहे है ! अगर हम सभी संगठित हो जाये तो हमारी समस्याओं का समाधान हो सकता है। तुम सब एक जुट हो जाओ, मालिक के समाने जाकर बात तो मैं कर लूँगा।’’
मेरी बात सुनते ही वहाँ का पुराना मजदूर गौतम झा बोला, ’’यह जगह तेरे लिए ठीक नहीं, समझा भाई! देख हम झगड़ा-टण्टा नहीं चाहते। बिहार से यहाँ कमाने आये है। गरीब आदमी हैं। मालिक को गुस्सा तू दिलायेगा और भुगतना हम सबको पड़ेगा।’’
अन्य सभी मजदूर उदासीन थे और चुप्पी साधे हुए थे। मैं भांप ही न सका कि वे मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं। फिर शंकर क्रोधित स्वर में बोला, ’’देख भाई नेता तू अपना हिसाब साफ करा ले। वरना नाक में दम हो जायेगा तेरे। मालिक अपने चमचे मैनेजर सतीश को तेरे पीछे लगा देगा और बस समझ कि हुआ तेरा। काम तमाम। बहुत शातिर इन्सान है वो।’’
मैने समझाया, ’’अरे! तुम सब उससे बेवजह डरते हो। हम सब एक जुट हो जाये तो वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’
उसी वक्त माधव फर्श से उठ खड़ा हुआ और अपनी तोतली आवाज में बोला, ’’त्या? ताम छोड़ कर चला दाये ये! अगर तोई इससे लड़ेदा तो मै इसता साथ दूँदा।’’
छण भर के लिए सन्नाटा छाया रहा और फिर सहसा कहकहों से गली गूँज उठी। ताजगी भरे और सबल कहकहे, जो गर्मियों में बारिश के छींटों की तरह मनुष्य की आत्मा के सारे विकार और मुर्झाहट धोकर उसे पवित्र और निर्मल कर देता है। इन्सानों को एक ठोस चट्टान बनाकर बनाकर एक जान कर देता है। और जो परस्पर मैत्री और सहानुभूति के सम्बन्धों से और भी दृढ़ हो जाता है।’’
हंसी थमी तो संजय ने कहा, ’’माधव ने हिम्मत की। लौंडा ठीक कहता है। बेकार में हम बेचारे को डरा रहे है। वह तो हमारे भले की बात करता है और हम उसे निकाल बाहर करने पर तुले हुए है।’’
और उस दिन के बाद से उन्हें मुझ पर विश्वास हो गया। उनमें भी अपने हकों के लिए लड़ने की हिम्मत आ गई। वे अब मेरी बातें ध्यान से सुनने लगे। फिर तो अमूमन रोजाना ही हम सभी लंच के दौरान गली में बैठकर अपनी समस्याओं पर बात करने लगे।
दीपावली आने में अभी एक माह था। मैंने सभी से राय लेकर दीपावली से पहले ही अपनी मांगे मालिक के सामने रखने की योजना बनायी। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक दिन मैनेजर दौड़ा-दौड़ा आया और चिल्लाने लगा, ’’सांप! सांप! गली में सांप है।’’ हम सभी उसके पीछे-पीछे गली में गये। मैनेजर ने कहा, ’’यहीं देखा था मैंने अभी एक बिल्कुल काला सांप उस कबाड के पीछे। फिर मैनेजर ने वहाँ पड़ी हुई सांप की केंचुल दिखाई तो सभी को लगा कि जरूर सांप ही होगा वरना यह केंचुल यहां कैसे आती। पहाड़ी एरिया था, आस-पास में सांप निकलते ही रहते थे। इसलिए किसी को शक की गुंजाईश नहीं रही।
सभी मजदूर डर गये। उनका गली में जाना बन्द सा हो गया। और इस तरह वह सुरक्षित गली असुरक्षित हो गयी।
मुझे तो पक्का यकीन था कि यह सब मैनेजर की चाल है। क्योंकि कई बार लंच में हमको वहाँ हंसी-ठ्ट्ठा करते देखकर उसके माथे पर बल पड़ जाते थे। वह समझ चुका था कि हम सभी यहाँ बैठकर एक जुट हो रहे हैं।
इस घटना के तीन चार दिन बाद मैंने सभी मजदूरों से अलग-अलग पूछा कि किसी ने सांप देखा क्या? सभी ने ना कहा। मैंने कहा, चलो आज लंच में सारा कूड़ा-कबाड़ इधर-उधर करके देखते हैं। सांप होगा तो नजर तो आयेगा।’’
सभी मेरी बात से सहमत हो गये। माधव ने एक लकड़ी अपने हाथ में ली और बोला, ’’हाँ.....हाँ अगल होगा तो माल दालेंगें। डलते त्यों हों।’’
अन्य मजदूर उसकी हिम्मत भरी बात सुनकर हंसने लगे। गौतम झा, संजय आदि ने भी डंडा, लोहे की राड़ आदि अपने हाथ में थाम ली और कबाड़ को इधर-उधर करके सांप को ढूंढने लगे। जब बहुत देर ढूंढ़ा-ढांढ़ी करने पर भी सांप नहीं मिला तो मैंने कहा, ’’यहां कोई सांप-वांप नहीं है।’’
शंकर ने कहा, ’’तो फिर वह केंचुल कहाँ से आई।’’ मैने कहा, ’’अरे! वह तो मैनेजर सतीश की केंचुल है। वह क्या साला सांप से कम है।’’
तभी गौतम झा मैथली में बोला, ‘‘निक कही छि। ये सब उसी की चाले छि। वह क्या काला सांप से कम छि। हाँ......हाँ यह उसी की केंचुल छि।’’
धीरे-धीरे सबको यकीन हो गया कि यह मैनेजर सतीश की ही चाल थी। सभी का डर निकल गया तो हम सभी पुनः पहले की भांति गली में इकट्ठा होने लगे।
सतीश ने दूसरी चाल चली और ज्यादा कबाड गली में डलवा दिया ताकि हमें बैठने को जगह ही ना मिले। मैं सब समझ रहा था। जब कभी बिजली चली जाती तो मै माधव और संजय को साथ लेकर कबाड़ को एक कोने में करवा देता। अन्य मजदूर भी आ जाते और हम साफ-सफाई करके बैठने की जगह बना लेते।
मालिक ने दूसरी चाल चली। वह मैनेजर की मार्फत मजदूरों को आपस में लड़ाते-भिड़ाने की कोशिश करने लगा। पर पता नहीं क्या बात थी कि जब वे मजदूर गली की शरण में आते तो उनकी गलतफहमियां दूर हो जाती और उनके झगड़े सुलझ जाते। हमारी एकजुटता को रोकने के कई प्रयास हुए पर वे सफल नहीं हुए।
और दीपावली भी आ गयी। दीपावली के दो दिन पूर्व ही मैंने मजदूरों की सभी समस्याओं और मांगों को एक कागज पर लिखकर सभी मजदूरों के हस्ताक्षर, अंगूठा लगाकर मैनेजर के हाथ में थमा दिया। उसने जब कागज को पढ़ा तो बहुत देर तक भुनभुनाता रहा। उसने फिर वह कागज मालिक को दे दिया। मालिक तो जानता ही था कि अगुवा कौन है। उसने मैनेजर की मार्फत खबर भेजी कि मैं शाम को छुट्टी के बाद मालिक से ऑफिस में मिलूँ।
शाम को जब मैं काम समाप्त करके ऑफिस में गया तो मालिक मुझे समझाने लगा, ’’क्या राजीव तुम भी पढ़े लिखे होकर इन जाहिल मजदूरों के साथ लग गये। मैं तो तुम्हे बहुत समझदार समझता था। और अगले महीने तुम्हारी तरक्की भी करने वाला था।’’
और भी कई चिकनी-चुपड़ी बातें मालिक ने मुझे बरगलाने के लिए कही। पर मै टस से मस नहीं हुआ। अन्त में उन्होने मुझे कुछ नकदी की भी पेश कश की। पर मैं नहीं माना। उनकी इस रियरियाहट से मैं इतना तो समझ गया था कि हमारी मांगे इन्हें माननी ही होगी वरना ये इतनी देर मुझे समझाने का प्रयास क्यों करते।
मैने स्पष्ट कह दिया, ’’सेठ जी हमारी मांगे कोई नाजायज नहीं हैं। आप भी इसे जानते हैं। अगर मांगे नहीं मानते है तो हम दीपावली बाद हड़ताल पर बैठ जायेंगें।’’ मैं जानता था कि दीपावली के बाद ही फैक्ट्री के काम में तेजी आती है। अगर हड़ताल हो जायेगी तो बहुत नुकसान होगा। कुछ देर तक मालिक उस कागज को घूरता रहा फिर मायूसी से बोला, ’’चलो ठीक है! मैं विचार करता हूँ। मैं अपने मजदूरों का हक थोड़े मारूँगा।
और अगले दिन फिर मालिक ने मुझे ऑफिस में बुलवाया। उसने कहा, ’’तुम्हारी सभी मांगे मैने मान ली है। पर मेरी एक शर्त है।’’
’’हाँ.....हाँ बोलिये सेठजी।’’
’’इस बार ऑर्डर अधिक है इसलिए माल स्पीड़ से तैयार होना चाहिये।’’
’’उसकी आप चिन्ता न करे। आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’’
जब मैं ऑफिस से बाहर आया तो सभी मजदूर मेरी और आशा भरी नजरों से ताक रहे थे। मैंने खुशी से झूमते हुए कहा, ’’हमारी सभी मांगे मान ली गई है यारो!’’ यह सुनते ही सभी मजदूर खुशी से उछल पडे़े। वे फैक्ट्री में पड़े लोहे के टीन टप्परों को बजाकर अपनी खुशी का इजहार करने लगे।
अब फैक्ट्री में बहुत से बदलाव हो गये थे। हमारे लिए नयी बस का इन्तजाम हो गया था। गेट पर ताला लगना बन्द हो गया था। पीने के साफ पानी की समुचित व्यवस्था हो गयी और सभी के वेतन में भी पर्याप्त बढ़ोतरी कर दी गई थी।
पूरे साल सभी ने मन लगाकर हंसी-खुशी से काम किया। नतीजा, उत्पादन भी पहले से अधिक हुआ। मालिक भी प्रसन्न हुआ। उसने अन्य सालों से अधिक बोनस हमें दिया। चापलूस सतीश की भी दाल गलनी बन्द हो गयी।
और सौभाग्य से अगले ही वर्ष मेरा शिक्षक की नौकरी में चयन हो गया। जब मैं फैक्ट्री से जाने लगा तो सभी मजदूरों ने मुझे अश्रुपूरित नेत्रो सें से विदा किया। उन्हें छोडकर जाने का मुझे भी दुःख था पर मुझे यह सुकून था कि मैं उनके लिए कुछ अच्छा कर सका। फिर मेरे यहां न रहने से भी क्या होगा? गली तो अभी भी उनके ही पास थी, जिसने उनको संगठित किया था।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

राहुल चौहान:-
अविश्वसनीय कन्टेन्ट अतिशयोक्ति लगता है....कहानी कम किस्सा ज्यादा लग रहा है....काश ऐसा हो सकता.....पर ऐसा होता नही हो ही नही सकता...अगर मालिक मज़दूरों को ज्यादा देने लगेगा तो अपने माल की कीमत कैसे प्रतिस्पर्धी banaayega? और मुनाफा कैसे बढायेगा ?
कहानी बाल स्वप्न है.

प्रदीप मिश्रा:-
कहानी का कंटेंट बहुत अच्छा है, लेकिन बुनावट में लेखकीय कौशल की कमी ने कहानी को उत्कर्ष पर नहीं पहुंचने दिया।

पूनम:-
सही कहा आपने कथा कितनी सहजता से हमारे सामने से होकर गुजरती है इस कहानी मे फैक्ट्री का
वातावरण ,वर्दी , गली, आपसी स्नेह की भावना सब प्रभावित करते है और
बिहारी मजदूरो की सामंजस्य की मानसिकता बहुत शुभकामनाये

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