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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 अक्तूबर, 2016

कविताएं : प्रदीप मिश्र

रचना:-: नमस्कार साथियो, 
      आज आपके लिए प्रस्तुत हैं समूह के  साथी प्रदीप मिश्र की कविताएँ। आपकी टिप्पणियाँ अपेक्षित हैं...

कविता :

1.  'अकर्मण्य दुनिया'

हफ़्ता देने के लिए पैसे नहीं हैं 
पिट रहा है ठेलेवाला 
देखकर मैं अंदर तक तमतमाया 
कल्पना में पुलिसवाले का कॉलर पकड़कर
उसी के डण्डे से पीटते हुए समझाया  
वर्दी की जिम्मेदारी

कल्पना से बाहर आते ही 
पुलिसवाले से नज़र बचाते हुए
निकल जाता हूँ किनारे से

कोसता हूँ अपने आप को
क्यों नहीं बदल पाया अपनी कल्पना को यथार्थ में

बस में खड़ी लड़की को बार-बार धकियाते और 
उसके अंगों पर हाथ फेरनेवाले गुण्डे लड़के को 
लगाना चाहता हूँ एक झन्नाटेदार झापड़
कसमसाता हूँ मन ही मन
बहुत हिम्मत जूटाकर सिर्फ इतना कह पाया
भाई साहब ठीक से खड़े रहिए

आग बरसाती आंखें गड़ाकर मुझ पर 
गालियों की झड़ी लगा देता है वह 
लड़की और भी सहम जाती है
अपनी कमजोरी पर तरस खाते हुए
करवट बदलता रहता हूँ  
रात भर 
कानफाड़ू शोर की तरह गाना बजाते हुए
लहराती हुई गाड़ी पर सवार बदमाशों का झुण्ड 
गुज़र रहा है पास से 
रोककर उनसे कहना चाहता हूँ
जिन पैसों पर ऐश कर रहे हो
उनमें तुम्हारे पसीने की गंध नहीं है
तुम्हारी आंखों में उतरा हुआ लाल नशा
मौत का नशा है
हाथ उठाता हूँ उनको रोकने के लिए
और टाटा कर देता हूँ
दुबक जाता हूँ सड़क किनारे

उनका शोर गूँजता रहता है कानों में
बेचैन होकर टहलता हूँ कुछ देर तक
और घर आकर सो जाता हूँ
दोनों कानों पर हाथ रखकर

अच्छे दिनों की घोषणा करनेवालों के माइक को पकड़ कर 
जोर से चिल्लाना चाहता हूँ
देशवासियों यह हमारे समय का सबसे बड़ा झूठ है
नाटक की तरह लगती है यह उत्तेजना 
मन ही मन स्वीकार कर लेता हूँ
इस माइक को पकड़ने का अधिकार मुझे नहीं है
चैनल बदलकर देखने लग जाता हूँ
कमेडी शो

एक भयानक अट्टाहास
मेरा मजाक उड़ाता रहता है निरंतर
जिसको टाल कर 
शुतुरमुर्ग की तरह दौड़ता रहता हूँ 
अपनी अकर्मण्य दुनिया में 
जहाँ ग्लानि, असमर्थता और स्वार्थ के कीड़े बज-बजा रहे हैं
खून का लोहा पानी में बदल रहा है ।

2. *दौड़*

एक समय था जब 
खुद से पीछे छूट जाने के भय से
दौड़ते रहते थे हम
और जब मिलते थे खुद से
खिल उठते थे
चांदनी रात में चांद की तरह
अंतस में  
झरने लगता था मधु

अब आगे निकल गए 
दूसरों के पीछे दौड़ते रहते हैं

इस तरह खुद से इतना दूर 
निकल जाते हैं कि
जीवनभर हाँफते रहते हैं
और अमावस की स्याही
टपकती रहती है
अंतस की झील में ।



3  *उम्मीद*

आज फिर टरका दिया सेठ ने
पिछले दो महीने से करा रहा है बेगार
                                    उसे उम्मीद है
                                    पगार की

हर तारीख़ पर
पड़ जाती अगली तारीख़
जज-वकील और प्रतिवादी
सबके सब मिले हुए हैं
                 उसे उम्मीद है
                 जीत जाएगा मुक़दमा

तीन सालों से सूखा पड़ रहा है
फिर भी किसानों को उम्मीद है
                        बरसात होगी
                        चुका देंगे कर्ज़

आदमियों से ज्यादा लाठियाँ हैं
मुद्दों से ज्यादा घोटाले
जीवन से ज्यादा मृत्यु के उद्घोष
फिर भी वोट डाल रहा है वह
                          उसे उम्मीद है,
                          आयेंगे अच्छे दिन भी

उम्मीद की इस परम्परा को
हमारे समय की शुभकामनाऐँ

उनको सबसे ज़्यादा
जो उम्मीद की इस बुझती हुई लौ को
अपने हथेलियों में सहेजे हुए हैं।

4  *लिखता हूँ प्रेम*

सूरज की नन्हीं किरणें
उतर आयीं हैं चेहरों पर
दरारों से आती हवा 
फेफड़ों में ताकत की तरह भर रही है

खेतों की तरफ जा रहे हैं किसान
त्यौहारों की तैयारी कर रहा है गाँव
कारखानों से चू रहा है पसीना
चूल्हों को इतमिनान है
अगले दिन की रोटी का 
टहल कर
घर लौट रहे हैं पिताजी

सुबह की चाय के साथ अख़बार
बेहतर दिनों के स्वाद की तरह लग रहा है
कलम के आस-पास जुटे हुए अक्षर
प्रेम कविता के लिए
आग्रह कर रहे है

लिखता हूँ प्रेम
और ख़त्म हो जाती है स्याही ।

5 *सफलता*

सफल प्रेमी के पास
सबकुछ  था 
प्रेम नहीं

सफल संगीतकार के पास
सबकुछ था
संगीत नहीं

सफल नायक के पास
सबकुछ था
वे लोग नहीं 
जिन्होंने बनाया था
उसे नायक

सफल राज़नीतिज्ञ के पास
सबकुछ था
नीति नहीं

केकड़े की संतान और सफलता
के बीच एक जुगलबंदी है
जिसके स्वर में जड़ें नहीं है
एक आकाश है जिसका रंग सफेद पड़ चुका है।
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परिचय : प्रदीप मिश्र

जन्म - १ मार्च १९७०, गोरखपुर, उ. प्र. ।
विद्युत अभियन्त्रण में उपाधि, हिन्दी तथा ज्योतिर्विज्ञान में स्नातकोत्तर।
साहित्यिक पत्रिका भोर सृजन संवाद का अरूण आदित्य के साथ संपादन।
कविता संग्रह फिर कभी (1995) तथा उम्मीद (2015), वैज्ञानिक उपन्यास अन्तरिक्ष नगर (2001) तथा बाल उपन्यास मुट्ठी में किस्मत (2009) प्रकाशित। साहित्यिक पत्रिकाओं, सामाचार पत्रों, आकाशवाणी, ज्ञानवाणी और दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण एवं प्रकाशन । कुछ कविताओं का दूसरी भाषा में अनुवाद।
म.प्र साहित्य अकादमी का जहूर बक्स पुरस्कार, श्यामव्यास सम्मान, हिन्दी गरिमा सम्मान तथा कुछ अन्य सम्मान।
अखबारों में पत्रकारिता। फिलहाल परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र, इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत।

संपर्क -  प्रदीप मिश्र, दिव्याँश ७२ए, सुदर्शन नगर, अन्नपूर्णा रोड, डाक : सुदामानगर,  इन्दौर - ४५२००९, म.प्र.।
मो.न. : +९१९४२५३१४१२६, दूरभाष : ०९१-७३१-२४८५३२७, ईमेल – misra508@gmail.com.

( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-

सुषमा सिन्हा:-
'अकर्मण्य दुनिया' एक बेहतरीन कविता लगी। अन्याय के विरुद्ध हर एक इंसान आवाज़ उठाना चाहता है पर व्यवस्था से लड़ नहीं पाने की अपनी कमजोरी के कारण उसकी आवाज़ घुटती रहती है और इस मानसिक तकलीफ में काल्पनिक लड़ाई लड़ते हुए जीता रहता है। कल ही दिल्ली की सड़क पर एक लड़के ने एक लड़की की 25 बार चाकुओं से हमला कर हत्या कर दिया। आस-पास लोग थे पर किसी ने कोशिश भी नहीं की बचाने की। दो चार लोग मिल कर बचाना चाहते तो उस लड़की की जान बच सकती थी। ऐसे अकर्मण्य दुनिया में जीते हुए हम और हमारे खुन का लोहा पानी ही तो हो गया है। कवि को बहुत बधाई एक ईमानदार कविता के लिए।
दूसरी कविता भी बहुत अच्छी लगी।

संजीव:-
अकर्मण्य दुनिया हमें अपने अंदर झांकने को विवश कर रही है और यह प्रश्न भी छोडती है कि इसका विकल्प क्या है? एक सामूहिक संघर्ष के बिना इस तरह की स्थितियों से बच पाना असंभव है.

आशीष मेहता:-
संजीवजी, कविता जिस बिंदु पर छोड़ देती है, वहाँ पर आपका इशारा ('सामुहिकता') बेहतर दिशा दिखा रहा है। अंतिम सत्य 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' ही होता है। सो, ताकत बटोरना जरूरी है।

सामुहिक कल्याणकारी कार्य, धर्म और संप्रदाय से जुड़े होने से 'मिडिया एवं समाज' में या तो उचित 'संज्ञान' नही पाते हैं या फिर आडम्बरपूर्ण (पेज ३ सामग्री) हो जाते हैं।

इसी लिए हमें 'सामुहिक बलात्कार' एवं अन्य अपराधिक गतिविधियाँ, ज्यादा पढ़ने - दिखने में आती है।

अपराधियों के खिलाफ 'अदम्य साहस' का परिचय, दुर्घटना होने पर मानवीय सहायता एवं परोपकार के भी अनेकोनेक उदाहरण सुलभ हैं। इन 'सुपर हीरो' में शारीरिक बल हो न हो नैतिक बल होता है।

आप जिस 'सामुहिक संघर्ष' पर ध्यान ला रहें है, उसके लिए नैतिक, मानवीय शिक्षा का बालमन में रोपित होना जरूरी है। मन के 'राम' और 'रावण' का भेद जानना और फिर 'लाठी' किसके साथ थमानी है, यह जानना 'चरित्र निर्माण' का ही अंग है। जब तक सामुहिक तौर पर चरित्र निर्माण नहीं हो, सामुहिक संघर्ष कैसे हो ?

अच्छी कविताएँ। दूसरी (दौड़) बेहतर रही।

संजीव:-
हमारे समाज का माइंड सेट अलग तरह से है जिसमें "सामूहिक" जैसे शब्द गलत संदर्भों में अधिक समझे जाते हैं, जैसा कि आशीष जी ने इशारा किया. पर हमारी व्यक्तिगत पहचान, व्यक्तिगत गरिमा, व्यक्तिगत उपलब्धि के बरक्स सामूहिक पहचान, गरिमा और उपलब्धि को संदर्भित किया जाए तो परिदृश्य बदल सकता है. मेरा सामूहिक संघर्ष से ऐसा ही कुछ मतलब है.

प्रदीप मिश्रा:-
संजीव जी, आशीष जी, सुषमा जी,दीपक भाई,पूनम जी और देवेंद्र जी आभार कविता पढ़ने के लिए। देवेंद्र जी अगर बताते कि कौन-कौन सी पंक्ति को छोटा करना है। तो बड़ी कृपा होगी। इस बहाने कविता की संरचना पर चर्चा हो जाती।

आशीष मेहता:-
आपका कहा, सर-माथे प्रदीप भाई। कविता और 'संरचना' पर टिप्पणी में असमर्थता के लिए माफ करें।

साथ ही, शुक्रिया संजीवजी। सामूहिक गरिमा /पहचान के बरअक्स ही 'चरित्र-निर्माण' की जरूरत को रेखांकित करने की कोशिश की थी, संजीव भाई।

मसलन, पचास साल पहले माना जाता था कि लड़कियाँ पढ़ कर क्या करेंगी, उन्हे केवल गृहकार्य में दक्ष होना चाहिए। आज न केवल पालक, बल्कि सास-ससूर भी अपनी बहु को पढ़ा-लिखा/स्वावलंबी होने में सहयोग करते हैं।

निैर्भया कांड के बाद के मौन और टिमटिमाती मोमबत्तियों से कहीं ऊपर (और नीतिगत) इशारा किया, जब आपने 'सामूहिक संघर्ष' की बात रखी।

हालांकि सही-गलत सापेक्ष होता है, पर जाने-अनजाने किसी गलत संदर्भ में कुछ लिख गया हूँ, तो क्षमा करें ।

मुझे भरोसा है, हम 'आसपास' ही हैं।

आशीष मेहता:-
वाह प्रदीपजी। सुन्दर कविताएँ, दौड़, सफलता (अकेलेपन), प्रेम, उम्मीद, डर, नपुंसकता ..... ..  जीवन रसों को खूब समेटा है आपने । शुभकामनाएँ।

इन कहती, बोलती , साथ लेकर चलती कविताओं की प्रस्तुति के लिए रचनाजी एवं बिजूका का आभार ........
निरंजन सर, घर के दो-तिहाई हिस्से को  स्कूल बस में बैठा कर लौटा हूँ। अक्सर इस सफर में आप और आपकी कविता ध्यान हो आती है।

आप जैसे गुणीजन, कविता एवं संरचना की विवेचना/ आलोचना करें, तो मुझ से प्राणी का भला होगा।

दीपक मिश्रा:-
कविताओं में गहन सम्वेदना है, कुछ भी न कर पाने की औसत भारतीय लिजलिजी कायरता की अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति है और बहुत देर तक टीसती पीड़ा है।

भागचंद गुर्जर:-
सभी कविताएँ अच्छी । वर्तमान परिस्थितियों को अभिव्यक्त करती सशक्त , मार्मिक कविताएँ । बधाई प्रदीप जी।

पूनम:-
आदरणीय प्रदीप जी आपकी कविता उम्मीद को महसूस किया तथा शबदो के बीच जो अनकही है उस खालीपन के प्रवाह को भी समझ रही हू कविता तो अभिव्यक्ति से भी कही आगे की बात है । बहुत शुभकामनाये आपको

प्रदीप मिश्रा:-
आशीष जी दीपक भाई मैं आपकी समीक्षा का फैन हूँ। आशीष जी निरंजन भाई साहब का पोस्ट मुझे दिख नहीं रहा है।लगता है मेरे मोबाइल में कुछ गड़बड़ है।रचना जी का आभारी हूँ। उन्होंने कविताओं को जगह दी।सृजन निष्कर्ष जी का आभार। पूनम जी कृपया आदरणीय मत लिखें। आपकी बातें मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं।

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