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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अगस्त, 2016

इरोम शर्मिला पर कविता

सुभोर साथियो,

कल हमने इरोम शर्मिला जी पर एक लेख पढ़ा था ।
आइये आज पढ़ते हैं कुछ कविताएँ,  जिनमें से कुछ स्वयं इरोम द्वारा रचित हैं और कुछ उन पर लिखी गई हैं।

एक मन जो इतने मजबूत इरादे रखता है, बतौर स्त्री सामान्य जीवन जीने की उम्मीद लिए, परिवार बसाने का सपना पाले कोमल भावनाओं से लबालब कविताएं भी रचता है।

4 नवम्बर सन 2000. यह वह तारीख है जब 28 साल की इरोम शर्मिला ने भूख हड़ताल की शुरुआत की थी. ठीक दो दिन पहले मणिपुर की राजधानी इम्फाल से सटे मलोम में शान्ति रैली के आयोजन के सिलसिले में इरोम शर्मिला एक बैठक कर रही थीं. उसी समय मलोम बस स्टैंड पर सुरक्षा बलों द्वारा ताबड़तोड़ गोलियां चलाई गईं. इसमें करीब दस निरपराध लोग मारे गये. वैसे यह ऐसी कोई पहली घटना नहीं थी लेकिन इरोम शर्मिला के लिए यह दमन का चरम था. पहले से ही आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफ्स्पा) का विरोध कर रही इरोम शर्मिला ने उसके खिलाफ एक अनोखी जंग छेड़ दी. तब शायद लोगों को लगा होगा कि एक युवा ने भावुकता में बहकर यह कदम उठा लिया है. आज इस घटना को बीते सोलह साल हो चुके हैं और इरोम शर्मिला के संघर्ष के सच्चाई लोगों के सामने आ चुकी है. इन सोलह सालों में जब शर्मिला का शरीर कमजोर और जर्जर हो चुका है, उनके इरादे पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं. यह संघर्ष मात्र भावुकता नहीं, मणिपुर का यथार्थ है जिसे बदलने की जिद इरोम शर्मिला ने ठान रखी है. आज बयालीस साल की हो चुकी इस लौह महिला में जीवटता अब भी कायम है. बतौर स्त्री सामान्य जीवन जीने की उम्मीद लिए, परिवार बसाने का सपना पाले शर्मिला भी इस आन्दोलन के ख़त्म होने के इंतज़ार में है. एक मन जो इतने मजबूत इरादे रखता है, कोमल भावनाओं से लबालब कविताएं भी रचता है. उनकी कुछ कविताओं का सरल हिंदी भावानुवाद.

1.

जब जीवन अपने अंत पर पहुंच जाएगा

तब तुम मेरे इस बेजान शरीर को

ले जाना और कोबरू बाबा की मिट्टी पर रख देना

मेरे शरीर को आग की लपटों के बीच

अंगारों में तब्दील करने के लिए

कुल्हाड़ी और फावड़े से उसके टुकड़े-टुकड़े करना

मेरे मन को वितृष्णा से भर देता है

ऊपरी खोल को एक दिन खत्म हो जाना ही है

इसे जमीन के नीचे सड़ने देना

आने वाली नस्लों के काम का बनने देना

इसे बदल जाने देना किसी खदान के अयस्क में

मैं शान्ति की सम्मोहक खुशबू फैलाऊंगी

कांगलेई से, जहां मैं पैदा हुई थी

जो गुजरते वक्त के साथ

सारी दुनिया में फ़ैल जाएगी.

आज की रात

दो सदियों के मिलन की इस रात में

मैं दिल को छू लेने वाली सभी आवाजें सुनती हूं

ओ, समय कही जाने वाली प्यारी देवी

इस वक्त तुम्हारी यह असहाय बेटी बड़ी उधेड़बुन में हैं

यह आधी रात मुझे बेचैन बना रही है

मैं भूल नहीं पाती हूं इस दुनियावी कैद को

उन बहते हुए आंसुओं को

जब चिड़िया अपने पंख फडफडाती है

उनको जो पूछते हैं कि

ये चलने लायक पैर किसलिए हैं ?

वे जो कहते हैं कि ये आंखे किसी काम की नहीं!

ऐ कारागार! तुम नष्ट हो जाओ

तुम्हारी इन सलाखों और जंजीरों की ताकत

इतनी क्रूर है कि इसने न जाने कितनी जिंदगियों को

वेवक्त चीरकर रख दिया है.

जाग जाओ

जाग जाओ

भाइयो और बहनो

देश के रक्षको, जाग जाओ

हमने एक लंबा सफ़र तय कर लिया है

यह जानते हुए भी कि हम एक दिन नहीं होंगे.

हमारे दिलों में डर क्यों बैठा हुआ है?

यह डर मुझमें भी है

इस मुश्किल कदम के असर से

चिंता और डर से भरी हुई

ईश्वर की प्रार्थना करते हुए

सत्य को अपने कमजोर शरीर से सराहते हुए

मैं अलविदा कहना चाहती हूं

लेकिन जीवन के लिए तरसती भी हूं

जबकि मृत्यु के बाद फिर जन्म होना है

मैं अपने लक्ष्य को पाने के लिए इतनी बेताब हूं ।

2   'अमन की खुशबू'
      ( इरोम चानू शर्मिला)

जब अपने अंतिम मुकाम पर पहुँच जाय

जिन्दगी  

तुम, मेहरबानी करके ले आना

मेरे बेजान शरीर को

फादर कोबरू की मिट्टी के करीब

आग की लपटों के बीच 

मेरी लाश का बादल जाना

अधजली लकड़ियों में

उसे टुकड़े-टुकड़े करना

फावड़े और कुल्हाड़े से 

नफ़रत से भर देता है

मेरे मन को 

बाहरी आवरण का सूख जाना लाजमी है

इसे जमीन के अंदर सड़ने दो

कुछ तो काम आये यह 

आने वाली नस्लों के 

इसे  बदल जाने दो

खदान की कच्ची धातु में 

मैं अमन की खुशबू

फैलाऊंगी अपने जन्मस्थल

कांगली से

जो आने वाले युगों में

फ़ैल जायेगी 

सारी दुनिया में

3  'इरोम शर्मिला'
    (फरीद ख़ान )

यह कविता इरोम पर नहीं है.
उन लोगों पर है
जो गाँवों, क़स्बों, गलियों, मुहल्लों मेंल
लोकप्रियता और ख़बरों से दूर,
गाँधी की लाठी लिए चुपचाप कर रहे हैं संघर्ष ।

यह कविता इरोम पर नहीं है ।
यह धमकी है उस लोकतंत्र को,
जो फ़ौजी बूट पहने खड़ा है ।
जो बन्दूक की नोक पर इलाक़े में बना कर रखता है शांति ।

पिछले दस सालों में जितने बच्चे पैदा हुए हिमालय की गोद में,
उन्होंने सिर्फ़ बन्दूक़ की गोली से निकली बारूद की गँध ही जाना है,
और दर्शनीय-स्थलों की जगह देखी हैं फ़ौज ।
जहाँ बर्फ़-सा ठंड़ा है कारतूस का भाव ।

यह कविता इरोम पर नहीं है,
बल्कि उस बारूद की व्याख्या है,
जिसकी ढेर पर बैठा है पूर्वोत्तर

4
इरोम शर्मिला की कुछ कविताये

(यह जानते हुए भी कि शब्‍दों की कविता शब्‍दों से बाहर निरर्थक है)

"इरोम:एक"

कौन है

जो सुन रहा है

इस पृथ्‍वी पर 

अकेला मौन तुम्‍हारा

अकेली चीख तुम्‍हारी.

"इरोम:दो"

यह हतप्रभ वितान

सुनता है तुम्‍हारी आंखों से कहे जा रहे

उन तमाम दृश्‍य कथाओं को

जो घट रहे हैं उसी के समक्ष

मानवता को शर्मनाक कलंक में बदलते

सुनो इरोम

सब देख सुन रहे हैं
अपनी क्रूर आंखों और प्रमुदित कानों से

कोई असम्‍मानित कर रहा है अपनी मुस्‍कराहट

कोई जान रहा है केवल समाचार

तुम्‍हारे साथ ही खडे हैं ये समस्‍त शब्‍द

भाषा और लिपि की वेशभूषा से बाहर

अपने होने की एकमात्र सार्थकता लिए हुए

इसलिए

और इसीलिए

शब्‍दों का सुरक्षा कवच बन गया है यह ब्रम्‍हाण्‍ड

और हम सबके हाथ

पयार्वरण बन अडिग तैनात हैं तुम्‍हारे पास

तुम हो

और केवल तुम ही रहोगी

अनवरत

हम सबकी आर्तनाद करती अबोध आवाज

"इरोम: तीन"

ग्रह और राशियॉं भी

डरते होंगे तुम्‍हारी देह के निकट आने को

नजर को खुद नजर लग चुकी होगी

मौसम का चक्र भी खूब समझता होगा

तुम्‍हारी देह के लिए नहीं है बदलना उसका

तुम जहॉं हो

वहाँ तुम्‍हें देखने के लिए

प्रतिबंध लगा होगा तारों पर भी

बिना तुम्‍हारे पुर्णिमा

खुद ही ढ़ल जाती होगी अमावस्‍या में

कितनी चिडियाओं ने बनाए होंगे घर

कि तुम देखोगी एक मर्तबा उन्‍हें
खेतों में उगी धान की बालियॉं

होड लगाती होंगी अपनी चुहल में

तुम्‍हारी देह में समाहित होने के लिए

तुम्‍हारी देह भी सोचती होगी

सहेलियों फूलों और बरसात के प्रति

निष्‍ठुरता तुम्‍हारी

चुप हो जाती होगी फिर

तुम्‍हारे अपने बनाए मौसम का साम्राज्‍य देखकर

तुम समय में नहीं जी रही हो इरोम

समय तुम में जी रहा है

अपनी बेबस गिड़गिड़ाहट के साथ

हम सब देख पा रहे हैं

कंपकपाते समय के समक्ष

तुम्‍हारी निश्‍छल अबोध मुस्‍कराहट

 "इरोम:चार"

कितना कुछ शेष है अभी

भला-भला और खूबसूरत सा
किसी गिलहरी की चपलता जैसा

गुम हो जाना है समय की क्रूरता

तर-बतर होना है तुम्‍हें
खांगलेई की बरसात में
बचपन की सहेलियों के साथ
हवाओं की सरपट बहती इच्‍छाओं में

 शामिल हो जाना है तुम्‍हें
तराइयों में टहलने के लिए
कांग्‍ला फोर्ट में बैठकर
पुनर्जन्‍म लेना है

 मणिपुर की शाश्‍वत नाभि से

 इसी जन्‍म में

 गले मिलना है बहुत देर तक

 अपनी माँ से

 सुबकती हुई खुशी के साथ

 बहुत कुछ शेष है अभी

  अशेष हो जाने के लिए

   
  "इरोम:पांच"

  एक इरोम शर्मिला है

  एक और मीरा है

  एक मणिपुर है

  एक और कृष्‍ण है

   एक समय है

   एक और बाँसुरी है

  एक विष का प्‍याला है

  एक और साजिश है

   एक कविता है

   केवल यही थोड़े से शब्‍द हैं.

5.   'घायल देश के सिपाही'
(इरोम शर्मिला के लिए : जिसने मृत्यु का मतलब जान लिया है)

लड़ रही हूँ की लोगों ने लड़ना बंद कर दिया है
एक सादे समझौते के खिलाफ
कि “क्या फर्क पड़ता है”
मेरी आवाज तेज और बुलंद हुई है इन दिनों
घोड़े की टाप से भी खतरनाक

मुझे जिन्दगी से बहुत प्यार है
मैं मृत्यु की कीमत जानती हूँ
इसलिए लड़ रही हूँ

लड़ रही हूँ की बहुत चालाक है घायल शिकारी
मेरे बच्चों के मुख में मेरा स्तन है
लड़ रही हूँ जब मुझे चारो तरफ से घेर लिया गया है
शिकारी को चाहिए मेरे दांत, मेरे नाख़ून, मेरी अस्थियाँ
मेरे परंपरागत धनुष-बाण
बाजार में सबकी कीमत तय है
मेरी बारूदी मिट्टी भी बेच दी गई है

मुझे मेरे देश में निर्वासन की सजा दी गई है
मैं वतन की तलाश कर रही हूँ

जब मैं फरियाद लिए दिल्ली की सड़को पर घूमती हूँ
तो हमसे पूछा जाता है हमारा देश
और फिर मान लिया जाता है की हम उनकी पहुँच के भीतर हैं
वो जहाँ चाहें झंडें गाड़ दे

हमारी हरी देहों का दोहन
शिकारी को बहुत लुभाता है
कुछ कामुक पुरुषों को दिखती नहीं हमारी टूटी हुई अस्थियाँ
सेना के टापों से हमारी नींद टूट जाती है
उन्होंने हमें रण्डी मान लिया है

उन्हें हमारे कृत्यों से घृणा नहीं होती है
उन्हें भाता है हमारा लिजलिजापन
वह कम प्रतिक्रिया देता है
सोचता है मैं हार जाउंगी

घायल शिकारिओं आओ देखो मेरा उन्नत वक्ष
तुम्हारे हौसले से भी ऊँचा और कठोर
तुम मेरा स्तन पीना चाहते थे न
आओ देखो मेरा खून कितना नमकीन और जहरीला है

आओ देखो राख को गर्म रखने वाली रात मेरे भीतर जिन्दा है
आओ देखो ब्रह्मपुत्र कैसे हंसती है
आओ देखो वितस्ता कैसे खिलखिलाती है मेरे भीतर
देखो हमारे दर्रे से बहने वाली रोसनाई
कितनी लाल और मादक है

मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
मैं कायम रहूँगी अपनी पीढ़ियों में
मैं इरोम हूँ इरोम
इरोम शर्मिला चानू
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(प्रस्तुति-बिजूका समूह)

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