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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 जून, 2016

संस्मरण : अमीता नीरव

साथियो सुभोर

आज पढ़ते है समूह के  साथी के दो संस्मरण

पढ़कर अपने निष्पक्ष विचार अवश्य रखें ।

2. टूटते यकीनों से 'बड़े' होते हम...

उसकी दुनिया छोटी थी और उसमें दोस्त बिल्कुल भी नहीं... जिज्ञासा तो हुआ ही करती थी, लेकिन बड़ों से कभी सवाल नहीं पूछे। बस खुद से ही बातें किया करती थीं, आज भी उसे ऐसा करना प्रिय है। इसलिए सवाल भी खुद ही उठाती, जवाब भी खुद ही दिया करती है... चाहे जवाब बहुत बचकाने हो.... राय खुद बनाती और उम्मीद भी खुद ही करती। ना जाने कैसा मन था, उसका कि वो जो कुछ भी सुनती थी, उसे सही मान लिया करती थी। जानना तो चाहती थी, लेकिन पूछने से जाने क्यों बचती थी। किसी स्थापना को ग्रहण करती थी, लेकिन उसे तब तक सच नहीं मान पाती थी, जब तक कि वोतक सच नहीं मान पाती थी, जब तक कि वो उसे टेस्ट ना कर लें.... फिर भी सहज विश्वास शायद बचपन की प्रवृत्ति ही हुआ करती है और इसी से पनपते थे अलग-अलग तरह के पूर्वाग्रह... बचपन भर उसने सुना है, धर्मग्रंथों से कि पूरे और सच्चे मन के साथ ईश्वर से प्रार्थना करो, तो उसे ईश्वर सुनता जरूर है.... उसने इसे सहेज लिया था, जरूरत के वक्त आजमाने लिए... और जल्द ही उसने जरूरत भी जुगाड़ ही ली थी। दूर के रिश्ते की बहन के मामा ने गुस्से में आत्महत्या करने की कोशिश की थी और उन दिनों वो अस्पताल में अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। बहन से मिलकर लौटी तो उसकी बार-बार भर आती आँखें उसे याद आती रही और उसने प्रार्थना करना शुरू कर दिया.... ‘हे भगवान! सरु मामा बच जाए...।’ 80 प्रतिशत जली हुई हालत में उन्हें अस्पताल में संघर्ष करते हुए 6 दिन हो चुके थे... उसने भी लगातार प्रार्थना का क्रम जारी रखा... ये सोचते हुए कि आखिर उसका सुना हुआ गलत कैसे हो सकता है। लेकिन पाँच दिन सच्चे मन से की गई प्रार्थना तब महत्वहीन हो गई, जब सरु मामा नहीं बच पाए... शायद उसकी छोटी-सी जिंदगी में उसके भोले-से विश्वास को पहली ठेस लगी थी। उस वक्त उसे बस अपने ‘सच्चे मन’ पर शक हुआ था... और उसने अपने विश्वास की टेस्टिंग को किसी नतीजे पर नहीं पहुँचने दिया था।

स्कूल में चाहे कोर्स पीछे चल रहा हो, माँ उसे पढ़ाने के मामले में हमेशा ही प्रोम्ट रही हैं। उस रात माँ उसे इतिहास पढ़ा रही थी। लॉर्ड माउंटबेटन वॉयसराय बनकर भारत आए थे और अपने साथ देश को बाँटने की स्कीम भी लाए थे। गाँधी से मिले तो उन्होंने उनकी स्कीम को ये कहकर खारिज कर दिया था कि बँटवारा उनकी लाश पर होगा....। उसे पहले तो ये बात ही समझ नहीं आई कि देश कैसे बँट सकता है... क्या वो कागज है, जिसका एक टुकड़ा उसे और दूसरा उसके भाई को पकड़ा दिया जाए और दोनों को खुश कर दिया जाए... खैर, वो चैप्टर उस दिन खत्म हो गया था, लेकिन उसका मन गाँधीजी की बात पर अटक गया था। यदि गाँधीजी ने कहा है कि बँटवारा उनकी लाश पर होगा तो फिर वो तो हो ही नहीं सकता, आखिर कोई भी उनकी बात कैसे टाल सकता है? जब वो सोई तो इस आश्वासन के साथ कि अब चूँकि गाँधीजी ने ही इसे खारिज कर दिया है तो बँटवारा तो होगा ही नहीं। तो बँटवारा एक दिन के लिए टल गया था... :-)

अगली रात जब माँ अपने गीले हाथ पोंछती उसे बैग खोलने का कह रही थी, तब उसने माँ से पूछा था – ‘देश तो नहीं बँटा ना...!’ माँ ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरा था... चल आगे पढ़ते हैं, शायद माँ भी उसके विश्वास को खुद नहीं तोड़ना चाहती होगी। हाँ..... तो नेहरू ने माउंटबेटन की स्कीम को मान लिया था... ‘नेहरू ने मान लिया था, कैसे मान लिया था, जब गाँधीजी ने नहीं माना तो नेहरू कैसे मान सकते थे...? वो तो गाँधीजी का कितनासम्मान करते थे... फिर, कैसे... ? तो अब क्या गाँधी को मरना पड़ेगा, इतना बड़ा आदमी बस ऐसे ही मर जाएगा।’ – माँ पढ़ा रही थी, लेकिन उसके भीतर सवाल-जवाब चल रहे थे।

उसे बहुत निराशा हुई थी कि देश बँट गया था और गाँधीजी ने अपने प्राण नहीं त्यागे थे... वो ये समझ ही नहीं पाई थी कि सिर्फ कह देने भर से मौत नहीं आ जाती। उसे लगता था कि साधारण इंसान के साथ ऐसा नहीं होगा, लेकिन गाँधी तो ‘ईश्वर-सदृश्य’ है... वो तो जब चाहे तब देह-त्याग कर सकते हैं... लेकिन उनके ना चाहते हुए देश बँट गया, उसे ये यकीन ही नहीं हो रहा था।
कुछ बड़ी हो गई थी... गुलज़ार की फैन भी....। किसी पत्रिका में एक लेख पढ़ा था, बाकी क्या था ये तो उसे समझ नहीं आया, बस इतना समझ आया कि उसका पसंदीदा गाना – ‘दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन’ जो कि गुलज़ार का लिखा बताया जाता है, असल में गुलज़ार ने ग़ालिब़ के कलाम की ‘चोरी’ की थी (उसकी नजर में चोरी-चोरी है, चाहे शुरुआत की दो लाइनें ही क्यों न हो?) उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि गुलज़ार जैसा इंसान ‘चोरी’ कैसे कर सकता है...?

शायद हरेक के बचपन में कुछ बहुत भोले-से यकीन हुआ करते होंगे... आखिर बचपन तो सिर्फ स्याह-सफेद ही समझता है, उसे कहाँ
ग्रे’ की कल्पना होती है...? उसे तो बस ‘सही-गलत’, ‘झूठ-सच’, ‘ईमानदार-बेईमान’ और ‘अच्छे-बुरे’ का ही ज्ञान होता है.... उसे जीवन की जटिलता और उसके परतदार होने का अनुमान तक नहीं होता... उसके लिए जीवन बस ‘जैसा दिखता है, वैसा ही होता है’। धीरे-धीरे उसका यकीन पतला होता चलता है, या यूँ कह लें कि धीरे-धीरे जब जीवन की पर्ते उसके सामने खुलती हैं, तब उसे महसूस होता है कि सही-गलत, सच-झूठ, ईमानदार-बेईमान और अच्छे-बुरे के ‘बीच’ कहीं जीवन हैं.... सिरों पर नहीं...।
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2. "बैठो! कहीं जाना नहीं है"

मन और मौसम दोनों की ही गिरह उलझी पड़ी है। दोनों की ही तरफ से कोई राहत नहीं....मन मौसम की तरह ही तप्त हो रहा है और मौसम है कि अपनी गाँठ खोलने के लिए ही तैयार नहीं है। ठहरना चाहना समय की रफ्तार में बहने लगा है...। हम पहले समय के साथ कदम मिलाने की और फिर उसे पकड़ने की एक बेकार सी कोशिश में लगे हुए हैं। कहाँ जाना है..क्या पाना है और क्यों पाना है जैसे सवाल कभी-कभी ही सिर उठाते हैं.... फिर डूब जाते है जिंदगी की जद्दोजहद में....। कभी घड़ी-दो-घड़ी खुद के साथ बैठे तब सवाल आकर इर्द-गिर्द डेरा डाल देते हैं.....लेकिन उसके लिए भी इतनी राहत नहीं है... घड़ी को थामने की बेतुकी सी कोशिश में ही दिन पर दिन गुजर जाते हैं। कभी-कभी ही खुद के पास आकर बैठ पाते हैं। एक अंतहीन और अर्थहीन दौड़.... उसका हिस्सा.... कभी खुद तो कभी मजबूरन....सार्त्र के शब्दों में हम पैदा होने के लिए अभिशप्त है..उसी तरह हम दौड़ का हिस्सा होने के लिए भी अभिशप्त हैं.....उन पर सुखद आश्चर्य होता है, जो जीवन को नशे की तरह खींचते चले जाते हैं...जीवन भर दौड़ते रहते हैं और कभी थकते नहीं, कभी रूकते नहीं और कभी खुद से पूछते भी नहीं कि क्यों दौड़ रहे हैं, क्या पा लेंगे... पा कर क्या होगा? यही वे लोग है जो दुनिया को बदलते है...विकास करते हैं और समाज को बेहतर बनाते हैं....यहाँ तो बड़ी से बड़ी सफलता का नशा भी दो दिन में उतर जाता है और फिर खुलने लगती है अर्थहीनता की पोटली....ये दौड़ क्यों है...कहाँ जाना है....क्यों जाना है और पहुँच कर क्या मिलेगा?....अंतहीन सवाल और कोई जवाब नहीं..। उनसे ईर्ष्या होती है.. जो इस दौड़ से अलग होकर किनारे बैठे हैं और दौड़ने वालों को निर्विकार भाव से देख रहे है गोया कह रहे हो कि रूक जाओ कोई कहीं नहीं पहुँचेगा.... बेकार है यूँ दौड़ना। ओशो का कहा अक्सर मजबूर करता है रूकने और बैठ जाने के लिए कि--- ‘बैठो!  कहीं जाना नहीं है। जो चला वो भटक गया, जो बैठा वह पहुँच गया।’
ये उसने कहा है जिसने दुनिया देखी है.....जो भटकने के बाद ही इस सत्य तक पहुँचा है...हम भी शायद पहले भटकेंगे और फिर कहीं बैठ जाएँगें....तब तक तो भटकने के लिए अभिशप्त हैं।

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प्रस्तुति-बिजूका टीम

तितिक्षा:-: परिचय

नाम-अमिता नीरव

जन्म-1 मार्च, उज्जैन

शिक्षा-पीएच. डी. (राजनीति-विज्ञान)

भाषा- हिंदी

विधा-कहानी, ब्लॉग

प्रकाशन-हंस, पहल, परिकथा, बयां, पाखी, समावर्तन, इंदु-संचेतना, लहक आदि में कहानियां प्रकाशित। ब्लॉग का अखबारों में प्रकाशन

सम्प्रति- इंदौर से प्रकाशित हिंदी दैनिक नईदुनिया के संपादकीय विभाग से सम्बद्ध

पता-27, रासवंशम, श्रीविहार कॉलोनी
आसाराम आश्रम के सामने
खंडवा रोड
इंदौर (मध्यप्रदेश)

फ़ोन - 9827288818 

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परमेश्वर फुंकवाल:-
जीवन में कुछ देर ठहर कर अपने आप से ये सवाल अवश्य पूछना चाहिए कि हमारे कार्यो का उद्देश्य क्या है। यदि दिशा सही नहीं है तो तेज भागने का कया फायदा। इन मायनों में यह आलेख सार्थक है।

पाखी:-
बच्चे के लिए जीवन बस 'जैसा दिखता है, वैसा ही हाेता है' पर बड़े होते हाेते उसे जीवन की जटिलतायें समझ में आने लगती है उसे गिव एंड टेक का मतलब समझ में आने लगता है.  वह समझ जाता है कि जीवन का ग्राफ सीधी रेखा में नहीं वरन अच्छे बुरे के बीच फंसा सा लहर की तरह ऊपर नीचे चलता है.. अच्छी लगी कहानी.. बधाई लेखक काे.. भास्कर

पूनम:-
यहाँ तो बड़ी से बड़ी सफलता का नशा भी दो दिन मे उतर जाता है और खुलने लगती है अर्थहीनता की पोटली ।
ये दौड क्यो है ?
कहां जाना है ?

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