image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अप्रैल, 2016

अनूदित कविताएँ : उत्पल बैनर्जी : मूल कवि : सुभाष मुखोपाध्याय

आज आपके लिए पेश-ए-ख़िदमत हैं कुछ अनूदित कविताएँ।  रचनाकार हैं बंग्ला के सुप्रसिद्ध कवि सुभाष मुखोपाध्याय.... और इनका बंग्ला से हिन्दी में बेहतरीन अनुवाद किया है कवि, अनुवादक उत्पल बैनर्जी ने। आशा है कि आप कविताओं व अनुवाद,  दोनों को अपनी सटीक प्रतिक्रियाओं से नवाज़ेंगे.....
  आपसे अनुरोध है कि कविताओं पर अपनी बेशक़ीमती टिप्पणियों की बौछार करें। 

कविताएँ :

1.   अद्भुत समय 

यह एक बड़ा अद्भुत समय है
पुरानी बुनियादें जब
रेत की तरह ढह रही हैं
हम भाई-बंधु ठीक तभी
टुकड़ों-टुकड़ों में बँटे जा रहे हैं!
किसने अपनी आस्तीन के नीचे
जाने किसके लिए 
कौन-सी हिंस्रता छुपा रखी है
हमें नहीं पता,
कंधे पर हाथ रखते हुए भी अब डर लगता है।
अँधेरे में चिरी हुई जीभें
जब फुसफुसाती हैं
तो लगता है कोई हमें अदृश्य आरी से
बहुत महीन टुकड़ों में काट रहा है।
जब 
एक साथ मुट्ठी भींचकर खड़ें हो सकने से ही
हम सब कुछ पा सकते थे -
तब
विभेद का एक टुकड़ा माँस मुँह में खोंसकर
चोरों के झुण्ड
हमारा सर्वस्व लिए जा रहे हैं!!

2.    जननी जन्मभूमि

मैं माँ को बहुत प्यार करता था
कभी अपने मुँह से नहीं कहा मैंने।
टिफ़िन के पैसे बचाकर
कभी-कभी ख़रीद लाता था सन्तरे
लेटे-लेटे माँ की आँखें डबडबा जाती थीं
अपने प्यार की बात
कभी भी मुँह खोलकर मैं माँ से नहीं कह सका।
हे देश, हे मेरी जननी
मैं तुमसे कैसे कहूँ!
जिस धरती पर पैरों के बल खड़ा हुआ हूँ -
मेरे दोनों हाथों की दसों उँगलियों में
उसकी स्मृति है।
मैं जिन चीज़ों को छूता हूँ
वहाँ पर हे जननी तुम्हीं हो
मेरी हृदयवीणा तुम्हारे ही हाथों बजती है।
हे जननी! हम डरे नहीं
जिन लोगों ने तुम्हारी ज़मीन पर
अपने क्रूर पंजे पसारे हैं
हम उनकी गर्दन पकड़कर
सरहद के पार खदेड़ देंगे।
हम जीवन को अपनी तरह से सजा रहे थे --
सजाते रहेंगे।
हे जननी! हम डरे नहीं
यज्ञ में बाधा पड़ी थी इसलिए नाराज़ हैं हम
हे जननी
मुँह से बिना कुछ कहे
हम अनथके हाथों से
प्यार की बातें कह जाएंगे।

3.    आग के फूल

सिर पर तूफ़ान उठाए हम लोग आ रहे हैं
मैदान के कीचड़ से सने फटे पैर लिए
धारदार पत्थरों पर
आग के फूल लेकर आ रहे हैं हम।

हमारी आँखों में पानी था
आग है अब।

उभरी हड्डियों वाले पंजर
अब
वज्र बनाने के कारख़ाने हैं।

जिनकी संगीनों में चमक रही है बिजली
वे हट जाएँ सामने से
हमारे चौड़े कंधों से टकराकर
दीवारें गिर रही हैं --
हट जाओ।

गाँव ख़ाली करके हम आ रहे हैं
हम ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे।

4. जुलूस का चेहरा

जुलूस में देखा था एक चेहरा
मुट्ठी भींचे एक धारदार हाथ
आकाश की ओर उठा हुआ,
आग की लपटों-से बिखरे हुए बाल
हवा में लहराते हुए।
झंझा-क्षुब्ध जनसमुद्र के फेनिल शिखर पर
फ़ॉस्फ़ोरस-सा जगमगाता रहा
जुलूस का वही चेहरा।
भंग हो गई सभा
चक्राकार बिखर गई भीड़
धरती की ओर झुके हाथों की भीड़ में
क़दमों के बीच खो गया
जुलूस का वही चेहरा।
आज भी सुबह-शाम रास्तों पर घूमता हूँ
भीड़ दिखते ही ठिठक जाता हूँ
कि कहीं मिल जाए
जुलूस का वहीं चेहरा।
अच्छी लगती है किसी की बाँसुरी-जैसी नाक
किसी की हिरणी-जैसी आँखों से छाता है नशा
लेकिन उनके हाथ झुके हुए हैं ज़मीन की ओर
झंझा-क्षुब्ध समुद्र में नहीं जल उठतीं उनकी चमकती आँखें
फ़ॉस्फ़ोरस की तरह।
मुझे नई ज़िन्दगी देता है --
समुद्र का एक चेहरा।
दूसरे सब चेहरे जब बेशक़ीमती प्रसाधनों की प्रतियोगिताओं में
कुत्सित विकृति को छुपाने की कोशिश करते हों
सड़ी लाशों की दुर्गन्ध दबाने के लिए बदन पर छिड़कते हों इत्र
तब वही अप्रतिद्वन्द्वी चेहरा
म्यान से निकली तलवार की तरह जागकर
मुझे जगाता है।
अँधेरे में इसीलिए हरेक हाथों में
थमा देता हूँ एक निषिद्ध इश्तहार,
जर्जर इमारत की नींव ध्वस्त करने के लिए
पुकारता हूँ
ताकि उद्वेलित जुलूस में देह पा सके एक चेहरा
और सारी धरती का श्रृंखल-मुक्त प्यार
दो हृदयों के सेतु-पथ से
आ-जा सके।

5. मेरा काम

मैं चाहता हूँ
अपने पैरों खड़े हो सकें शब्द
अपनी निगाहें हो हर परछाई की
हर ठहरा हुआ चित्र
अपने पैरों चल सके,
एक कवि की तरह याद किया जाऊँ
मैं नहीं चाहता,
चाहता हूँ --
कंधे से कंधा मिलाकर
जीवन के अंतिम दिन तक
साथ चल सकूँ,
चाहता हूँ --
ट्रैक्टर के पास
अपनी क़लम रख कर कह सकूँ
कि अब छुट्टी हुई!
भाई, मुझे थोड़ी-सी आग दो।

6.  नहीं जाऊँगा सभा में

जो मुझे चाहता है
मैं उसके पास जाऊँगा।
गले में नहीं खिलते सुर
फिर भी मैं गाऊँगा गीत
मृदंग बजाऊँगा

बारिश आने पर
बाहर निकलूँगा भीगने
यदि डुबा सके तो नदी डुबाए मुझे।
तीर्थ करने मैं नहीं जाना चाहता
शून्य में नहीं है कोई फ़ायदा!
क्यों पुकारते हो
मन नहीं है, नहीं जाऊँगा सभा में।

मूल रचनाकार परिचय --

नाम-  सुभाष मुखोपाध्याय 
जन्म - १२ फ़रवरी १९१९, कृष्णनगर, जिला - नोदिया, पश्चिम बंगाल
निधन : ८ जुलाई २००३ 
शिक्षा -  स्कॉटिश चर्च  कॉलेज, कोलकाता से दर्शनशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि  

साहित्यिक परिचय- 
(1) १० से ज़्यादा कविता संग्रह प्रकाशित (प्रमुख हैं : पैदल सैनिक, अग्निकोण, फूल को खिलने दो, मैं कितनी ही दूर जाऊँ,  ओ भाई )

 (2) प्रमुख गद्य रचनाएँ : मेरी बांग्ला, जब भी जहाँ भी, बातों-बातों में, वियतनाम में कुछ दिन, डाकबंगले की डायरी.
पुरस्कार : आनंद पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू सम्मान, कबीर सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी सम्मान, देशिकोत्तम पुरस्कार, एफ्रो एशियाई लोटस अवार्ड 

अनुवादक रचनाकार परिचय --

नाम-  उत्पल बैनर्जी 
जन्म - २५ सितम्बर १९६७ 
निवास - डेली कॉलेज कैंपस, इंदौर 
शिक्षा -  स्नातकोत्तर हिंदी साहित्य  
सम्प्रति - अध्यापन डेली कॉलेज, इंदौर

साहित्यिक परिचय- (1) कविता संग्रह - लोहा बहुत उदास है 
 (2) अनुवाद : सुकांत भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ, नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताएँ, सुनील गंगोपाध्याय की चुनी हुई कहानियाँ, समकालीन बांग्ला प्रेम कहनियाँ, रमापद चौधुरी की श्रेष्ठ कहानियाँ, चित्रगुप्त की फाइल उपन्यास (सतीनाथ भादुड़ी) ये सभी रचनाएँ  पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित.

सम्पर्क - बंगला नंबर १०, डेली कॉलेज कैंपस, इंदौर-मध्यप्रदेश 

(प्रस्तुति :बिजूका समूह)
-------------------------------
टिप्पणियाँ:-

विदुषी भरद्वाज:-
सत्यं शिवं सुन्दरं रची बसी कविताएं...जननी जन्मभूमि,मेरा काम और नहीं जाऊँगा बहुत प्यारी कविताएँ ,मनीषा जी आभार

ब्रजेश कानूनगो:-
बांगला कविता जब उत्पल के जरिये हम तक आती है तो उत्पल भी मौजूद होते हैं वहां।सुंदर कविताएँ, सुन्दर अनुवाद।बधाई।शुक्रिया बिजूका।

पारितोष:-
जितनी बेहतरीन कवितायेँ उतना ही उत्कृष्ट अनुवाद।शुक्रिया बिजूका,आभार मनीषा जी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें