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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 मार्च, 2016

कविता : सुशील कुमार शैली

आज प्रस्तुत हैं समूह के एक साथी की दो कविताएँ...  
     आशा है आप इन्हें पढ़कर अपनी मूल्यवान और सारगर्भित टिप्पणियाँ देंगे...  

1.  'जलता है दीया मुंडेर पर'

हमारे घर की मुंडेर पर दीया जलता है
काली अंधियारी रात में, हर रोज़
कवितायों के लिए ओज
वहीं से लेता हूँ, मैं 
ये मेरी माँ का विश्वास ही है
कि वो जलता है, दो चार होता है
पास भी फटकने नहीं देता 
अंधेरे को
कि जब तलक सुबह का सूरज 
दस्तक नहीं देता बंद खोलियों पर 
निगल नहीं जाता 
आकाश पर छाई अंधेरे की चदरिया को 
वो जलता है, दो चार होता है
गिरता है, उठता है
लेकिन फिर भी तैनात है 
उसके विश्वास को आकार देने के लिये |
_____________________________________

2.  'न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान'

मेरे दोस्त ! जब मेरा जन्म हुआ
मेरी माँ को दाई ने आकर ये नहीं कहा कि
" बधाई हो आपके घर हिन्दू पैदा हुआ है "
न ही मेरी माँ की पहली देखनी ने मुझे 
हिन्दू की दृष्टि से देखा 
और न ही मुझे पहली गुड़ती देने कोई
हिन्दू देवता ही वहां आया
मेरी माँ के लिए मैं उसके ज़िगर का टुकड़ा था
उसकी दुनिया ..............
न कि हिन्दू .........
मैं बता दूं, बताना ही पडे़गा
मेरे मुहँ से निकलना  पहला शब्द माँ था 
न कि हिन्दू...........,

मेरे दोस्त ! तुम्हें याद है मासूम बचपन में 
मुहल्ले में खेलते समय आँख-मचौली 
मैं तुम्हें, तुम मुझे 
इस लिये पकड़े नहीं थे पहले 
कि तुम सिक्ख थे, या अब्बास मुस्लिम और मैं हिन्दू
हमारी तौतली ज़ुबान से निकलते शब्द 
उस समय न हिन्दू थे न सिक्ख न ही मुस्लमान
वे मात्र प्रेम था एहसास थ .....,
  
मेरे दोस्त ! हमारे घर के पास की पाठशाला की दीवारों के
भीतर न तुम सिक्ख थे, न मैं  हिन्दू , नहीं अब्बास मुस्लमान
मेरे दोस्त ! पाठशाला का सिखा वह पहला शब्द 
जिसे बोलने लिखने की खुशी में तुम मैं 
घण्टों उच्छले थे, वह शब्द
न हिन्दू था, न मुस्लिम, न सिक्ख ,

तुम्हें याद है ! आधी छुट्टी के समय 
जब हमारे डिब्बे खुलते थे 
तो हम चकित रह जाते थे और एक दूसरे को शक्क की
निगाह से देखते थे
उस समय जब हम एक-दूसरे की रोटी चुरा कर 
खा जाते थे 
हां ! हां ! उसी समय
उस समय न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान,

मेरे दोस्त ! हमारी आपस में बदलती कापियों 
और नकल करके उतारे गए सारे प्रश्न 
न उस समय हिन्दू थे न सिक्ख न ही मुस्लमान
और ...और तुम्हें याद होगा 
जब छुट्टी होती थी
तब घर जाते समय
बाज़ार में चलते समय, सड़क पार करते समय
वाह्नों की तेज़ रफ़तार से डरते 
जब हम एक दूसरे का हाथ कस्स के 
पकड़के सड़क पार करते थे तो डरे सहमे
एक दूसरे को डांडस देते, सहारा देते 
न तुम सिक्ख थे न मैं हिन्दू न ही अब्बास मुस्लमान,
तो अब मेरे दोस्त ! तुम क्यों कहते हो
कि मैं हिन्दू, तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान

मेरे दोस्त ! तुम्हें याद होगा बाज़ार में हुआ हमारा झगड़ा
जब हमने मिलकर पिट्टा था 
उस आततायी को जिसने 
पहले तुम्हें फिर मुझे फिर अब्बास को गाली दी थी
उस समय भी न मैं हिन्दू था न तुम सिक्ख न ही अब्बास मुस्लमान
और हमारे लिए वो था एक दरिंदा बस

मेरे दोस्त ! तो अब क्यों तुम.........

मेरे दोस्त ! मैं आज भी पाठशाला के उसी मोड़ पर
सडंक पार करने के लिए
और हाथ में वही डिब्बा लिए
इसी आशा में कि हम एक दूसरे का चुराकर खाना खायेंगे
खड़ा हूँ 
कि भूल कर तुम कि
मैं हिन्दू हूं तुम सिक्ख और अब्बास मुस्लमान
आओगे और सड़क पार करते हुए 
चुपके से हम एक दूसरे का खाना खा जायेंगे...

कुछ और कविताएँ -

1.'समकालीन संदर्भ में'

लेकर बैठ जाता हूं मैं  ,
वर्षों के महाकाव्य 
गुजरता हूं पंक्ति - दर - पंक्ति
ठहरता हूं , हर विराम पर
देख भी लेता हूं 
आगे बढ़ते - बढ़ते , हर बार
पीछे मुड़कर
वहीं , उसी मोड़ पर , आकार 
ठहर जाता हूं ,
सोचता हूं कि-
कविता क्या है ?
गूंजते है ,
उदात्त व्याकरण की गृहस्थी के 
सभी उच्चकुल संपन्न नायक
कि कविता - 
घरेलू हिंसा के खिलाफ़
शब्दों का सत्याग्रह है, 
जलती हुई मोमबत्ती की 
पिघलती हुई आह है ,

रास्तों में, सड़क पर 
भीड़ का , बाजूओं पर
काले धागों में बदल जाना
चल पड़ना प्रगति मैदान में
किसी न किसी छाया के नीचे
हाथों में लिए , तख्तियों पर
कुछ अहिंसा के गिने चुने , संवैधानिक शब्द लिए
कि नागरिकों को अधिकार है
वो निर्धारित कर सकें
अपनी जुबान से निकलने वाली ध्वनियों के
स्पर्श स्थान , मुंह के भीतर , 
अब जब आक्रोश का दूसरा नाम
भूख हड़ताल है ,
निकल पड़ना गंगा घाट पर
देश भक्ति की पहचान ,

मुझे उचित लगता है , उस समय , कहना
उस बंदूक धारी का
कि कविता और कुछ नहीं 
युद्ध है , अपनी पहचान का
उससे , आंखें न मिला पाने की , विवशता 
धरोहर  से अलग कर देने की 
चालाकी
उसे नक्सली बता देती है 
और विधान के इस प्रपंच में
एक आवाज़ को असंवैधानिक , ठहरा
देती है |
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2. 'शब्दों की हत्याओं के खिलाफ़ '           

लोग चुप हैं
शब्दों की हत्याओं के खिलाफ़
कहीं कोई विरोध नहीं , प्रतिरोध नहीं
कि टांग दिया गया हैं चौराहे पर 
एक किताब को क़त्ल कर, 
बहस के लिए पैैदा कर दिये गए हैं 
कुछ नाजाय़ज शब्द 
हमारे नाम पर , मेरे साथी !

पैदा किये गये अफ़वाहों के धूल भरे भवंड़रों के बीच
कटी हुई गायें के ऊपर
किसी को दिखाई नहीं दे रही एक बहसी सोच
शहर के नक्शे पर उगाई गई
कंटीली झाड़ियों की चुबन 
दूर कहीं शंख की ध्वनि
ह्वन के धूंए से परास्त हो गई है
कुछ ऐसा माहौल है मेरे शहर आज कल,
मेरे साथी !

नहीं भेद पा रही है आदमी की आँख
उस तिलिस्म को 
जो ऊँचाई के कुछ नुख्तों के नाम पर 
उसे ज़मीन में गाड़ता जा रहा है,
क़त्लाये गये शब्दों पर अफ़सोस तो 
सभी को है, सभी उस के चीथड़ों को लेकर 
रो रहे हैं पीट रहे हैं,
लेकिन विरोध , प्रतिरोध कहीं 
नहीं है , मेरे साथी !
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 3.   'घृणा की शुरूआत'

मैं, उस समय
उस आदमी से घृणा करने लगता हूँ
जब बाईं ओर मुँह कर 
वह आदर्श की जुगाली करता है 
कुछ समय बाद, दीवार की बाईं ओर 
जांघों को खुजलाता, आदमी चबाता 
धीरे-धीरे शहर निगल जाता है
फिर भी शाकाहारी ही कहलाता है,

यह एक सोच की पूरी श्रंखला है
जो ईमारतों के पहले स्तर से शुरू हो अंतिम स्तर तक
बिल्डर और इंजीनियर की मिली-भूगत का नतीजा है
कि बसते हुये लोग शहर 
शहर ईमारत , और ईमारत दीवार बनती जाती है|
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कवि परिचय -

नाम-    सुशील कुमार शैली
सम्प्रति- प्राध्यापक , एस.डी. कॉलेज ,बरनाला 
रचनात्मक कार्य - कविता संग्रह- तल्खियां (पंजाबी में ),  समय से संवाद ( हिन्दी में ),  कविता अनवरत-1, काव्यांकुर-3, सारांश समय का (सांझा संकलन) 
विभिन्न पंजाबी, हिन्दी पत्रिकाओं में रचनाएं व शोधालेख प्रकाशित |
पता - एस. डी कॉलेज, बरनाला
               हिन्दी   विभाग 
के. सी रोड़ ,बरनाला (पंजाब) 148101
मो - 9914418289
ई.मेल- shellynabha01@gmail.com

प्रस्तुति - मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-

पारितोष:-
कविताओ का विषय और भावात्मकता तो बेहतर है लेकिन शिल्प के स्तर पर काफी सामान्य ।कविता का आनंद तभी होता है जब उसकी अर्थवत्ता जितना कहे उससे अधिक अनुत्तरित रहे,सपाट बयानी से कवि आगे बच सके तो ठीक होगा।

परमेश्वर फुंकवाल:-
परितोष जी से सहमत। एक बात और जोड़ना चाहूंगा शब्दों के दोहराव से बचा जाना चाहिए। शब्दस्फीति से रचना की कसावट जाया होती है।

संजना तिवारी:-
परितोष जी से सहमत हूँ । विषय चयन बहुत नया ना होकर भी अच्छा है लेकिन सपाटपन अखरता है । आजकल ऐसा जरूरी नही की कविता छंदबंद हो लेकिन कम से कम एक लय का जुड़ाव महसूस हो तो बेहतर  ।

संजना तिवारी:-
कवि के पास कहन की विद्द्या है , विषय चुनने का हुनर है , बस थोड़ा सा काम बाकी है लय पर

मनचन्दा पानी:-
दोनों कवितायें अच्छी लगी। बुनावट कमजोर है। कसावट में कमी है। विषय चयन और भाव अच्छे हैं। पारितोष जी और संजना जी ने जैसा कहा कि शब्दों में अनावशयक दोहराव से बचा जाए। दूसरी कविता इसी कारण से कमजोर हो जाती है।

समूह के वरिष्ठ साथी बताएं कैसे ऐसी गलती से बचा जाये। हमें कुछ सीखने को मिलेगा।

परमेश्वर फुंकवाल:-
कविताओं में प्रतिरोध की बुलंद आवाज है। कल के मुकाबले बेहतर कविताएँ। वर्तनी की गलतियां अखरती हैं। संभावना से भरे कवि को बधाई और शुभकामनाएं।

आशीष:-
अच्छी  कविताएं । खासकर  आज के  समय में  दूसरी  कविता  ,   सहजता  से  सम्प्रेषित  हो रही  है । धार्मिक खांचे   में  बांटे  जारहे  सामाजिक तानबाने  के  लिए  आइना है । 
      कभी-कभी   बहुत  गम्भीर तरीके  से  इन  बुनियादी प्रश्न  को  सामने  लाते  हैं   तब  वह  हमारे  बौद्धिक विमर्श  का  हिस्सा   तो  बनता  है लेकिन  हमें  आसपास   की व्यवहारिक जिंदगी  में  वह  दिख नहीं  रहा  होता । सामान्य   आमफहम  बात  भी  हमारे  सामने जो  घट रहा  है उन परिघटनाओं  की अनौचित्य को  प्रश्नांकित  कर  रही होती है ।।  क्या   होना   चाहिए यह  एक  आगामी विकल्प  की  ओर  इशारा करता  है ।  लेकिन  वास्तविकता में  हम  अपने  सामाजिक क्रियाव्यापारों  में एक  दूसरे  कितने  गहरे  जुड़े  है  कि  अलग  पहचान का  ख्याल  तक  नहीं   आता । वह हमारा  बचपन  हो  या  जिंदगी के  कोई  और  क्षण   ।
जलता  है  दीया   मुंडेर पर ,  उम्मीद  की  कविता  है ।  घनघोर  हताश पल  में भी   कुछ  करपाने  की  रोशनी  से   आगे  बढ़ते  है । मुंडेर पर  दिया   अंधेरे  में  उम्मीद   की  लौ  है ।

रचना:-
साथियों,  कल समूह में जिन साथी की कविताएँ पोस्ट हुई थीं,  आज भी उन्हीं की कुछ अन्य कविताएँ आपके लिए प्रस्तुत हैं। उनका परिचय और तस्वीर भी कविताओं के पश्चात दिया गया है।
आपकी सटीक टिप्पणियाँ रचनाकार को एक दिशा प्रदान करती हैं। अतः टिप्पणी करने की परंपरा बनाए रखें।

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