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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 जनवरी, 2016

कविता : आर चेतन क्रांति

आज पढ़ते हैं समूह के साथी की रचनाएं । आप सब पढ़े तथा सबकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। रचनाकार का नाम बाद में ।

॥ सीधी सड़क-टेढ़ी सड़क॥
 

मुझसे अपने स्वार्थ छिपाए नहीं बनते

अपने लालच-लोभ में
मैं धाड़ से कह देता हूँ

जिसे सुनकर सलीके अवाक रह जाते हैं 

जाने क्यों

पर यह मुझे ज्यादा घातक लगता है

कि बैठे हैं और धीरे-धीरे छोड़ रहे हैं.
 
सलीका भले सहमत न हो

पर यह कितना विचित्र है

कि अंततः जो तय है

सारा सफ़र तुम वही न कहो.

और कितना अश्लील

कि एक टुच्चे से स्वार्थ को

तुम सृष्टि के रहस्य की तरह ढोते रहो

और अंत में दस पैसे की एक पुड़िया

कांख में दबाकर चिहुँकते हुए निकलो

और यह भी कहो

कि मार लिया...जी मार लिया मैदान.

 

ताज्जुब कि तुमको आलस नहीं आता

शुक्र है, मुझे ऐसा पुख्ता-पीठ आलस मिला

कि नमस्कार से पहले लिप्सा कह देता हूँ.

मुझे लगता है कि अगर मैं सीधे जाऊँगा
तो इतना घूमकर नहीं जाना पड़ेगा
जिसके लिए तुमको वाहन रहना पड़ जाता है.

 
तुमको नहीं लगता कि पूरी पृथ्वी सिर्फ सड़कों को नहीं दी जा सकती

और न सब सड़कें पहियों के सुपुर्द की जा सकती हैं

और फिर, पैरों के बिना

सोचो, कैसे तो तुम लगोगे

जब वे पूंछ की तरह

तुम्हारे गाड़ी-भर नितम्बों के गोश्त में विलुप्त हो जाएंगे.
 
माना कि सभ्यता का उत्सर्जन

आँतों-सी उलझी इन्हीं अनंत सड़कों से हुआ

सलीके निकले, तमीज आई

फिर भी सोचो कितना सुकूनदेह होता

कि सबसे पहले स्वार्थ ही कह देते

और बाकी वक्त हाथों में हाथ डालकर घूमने निकल जाते.

 
क्या पता सड़कों का जाल तब इतना दुष्कर न होता

शरीरों के सिर आकाश में पुल बाँध रहे होते

और अपने में मगन पाँव

धरती के दुपट्टे में पगडंडियों की कढाई करते.
 
कितनी राहत मिलती है सोचकर
कि मुझे जो चाहिए बिना अगर-मगर जाकर ले आता

और कितनी ऊब यह देखकर : 
कि पहले प्रणाम तो जी,
फिर चतुराई जी-चालाकी जी, सावधानी और वाक्पटुता जी.
फिर यह सोचना कि कौन सी मिठाई उन्हें पसंद है
कौन सी राजनीति.
ध्यान रखना
कि बीवी से नजर नहीं मिलानी है...
बेटे का भजन सुनना है...
ज्ञान दिखाना है...तर्क सुनाना है...यह भी मान लेना है
कि मुट्ठी में तो बस रेत है जी और यह भी
कि जीवन में संघर्ष के बिना घंटा भी हाथ नहीं आता.
और अंत में थक जाना है, कुढ़ना है, धैर्य खो देना है.
हमलावर हो जाना है
और गर्दन पर पैर रखकर लेकर चले आना है,
दरअसल जो चाहिए था.
ये ही सड़क है?
इसी पर जाना है?  

॥ विचारों से नहीं जीतीं जा रही थी चीजें॥

विचारों से नहीं जीतीं जा रही थी चीजें
 
कोई नहीं सुनता था

जब सौ सिर एक साथ उठकर कहते

कि “ ‘मगध में विचारों की कमी है’, कहा है कवि ने”

और स्पर्द्धा से घूरते इन्तिज़ार में बैठ जाते

सुनने के लिए फैसला

कि किसने कहा सबसे अच्छे ढंग से.

मंच देर तक मौन रहता

फिर कंट्रोल रूम से आती एक बांह चांदी की खुलती हुई

लम्बी और लम्बी होती हुई

और श्रेष्ठतम को छूकर वापस चली जाती

माथे पर जड़कर एक मोती.

विह्वल मंच तालियाँ बजाता

और हारे हुए सारे कुहनियों से ठेलते हुए एक दूसरे को

चले जाते घर विचारों का अभ्यास करने फिर से.
 

सबसे खतरनाक विचार की भी वहां एक कीमत थी

सबसे खूंखार भंगिमा के लिए भी था एक पुरस्कार
सबसे सुंदर के साथ

सबसे वीभत्स को भी आते थे खरीदने वाले

सबसे निर्णायक सपने को भी

देखा जाता था वहां फिल्म की तरह

आराम से कुहनी पर सिर रखकर दूर से.
 
सबसे ऊंची चीख को भी रिकॉर्ड करने के साधन वहां उपलब्ध थे

और सबसे धीमी सिसकी को भी.
 
सभी तरह के विचार वहां कहते थे कि बड़ा सोचो

सभी विचार सहमत थे कि सबसे खतरनाक है पीछे रह जाना

सभी विचार मान चुके थे कि सबसे बड़ी बात है जीतना

लेकिन विचारों से नहीं जीतीं जा रही थी चीजें

विचारों से बस विचार जीते जाते थे

और बाकी कुछ और चीजें जिनके खिलाफ खड़े हुए थे विचार.

॥ वेध्य॥

कितना वेध्य है वह
जो गहरे गड़े जमे हुए खूंटों को थामे नहीं बैठा पृथ्वी पर

वह जिसके अन्तरिक्ष में अनाथ लटके पैर

तारों से टकराते रहते हैं

कभी मंगल पिंडली को रगड़ता हुआ निकल जाता है

कभी नेपच्यून जाँघों में आ फंसता है

कभी चन्द्रमा के लगने से अंगूठे का नाखून नीला पड़ जाता है

कभी सूर्य भँवों को झुलसा देता है

कितना वेध्य है वह पृथ्वी पर

जिसकी सोच खूंटा नहीं हो गई है

जिसका धड़ हवा के साथ हिलता है

मन जिसका अकुलाता रहता है भ्रूण की तरह

सांचे जिसको समेट नहीं पाते

भेद जिसे समर्थ नहीं बनाते

विभाजन रेखाएं जिसकी नागरिकता को रात-दिन कुतरती रहती हैं

इरादे जिसके आँख-मिचौली खेलते रहते हैं
अंतिम तौर पर सब कुछ हो चुकी दुनिया से

 
घसीटती फिरती है जिसे बाल पकड़कर
अनजान इलाकों में
 पूर्ण होने की इच्छा.
 कितना वेध्य है वह
और कोई बचाने नहीं आएगा उसे.

॥ एक नज्म : देश के कार-प्रेम को समर्पित॥

एक कार ले के चल दिया इक घर पे खडी है,
इक और भी है पर वो इस गली से बड़ी है.

ये कार मेरा शहर है मेरा मकान है,
हाँ मानता हूँ इससे परे भी जहान है,
गंदी गली, कच्ची सड़क, थूके हुए-से लोग,
ये मुल्क नहीं, यार मेरे, नाबदान है.

मेरी जगह पे आइयो तो देगा दिखाई,
मेरी जगह से झांकियो तो देगा सुनाई,
इस शहर की औकात बताती है ये खिड़की,
इस व्हील से खुल जाती है गैरत की सिलाई.

एक हॉर्न जो दे दूँ तो दहल जाए मोहल्ला,
उतरूं हूँ जब सड़क पे तो पड़ जाए है हल्ला,
ये कार हौसला है, ताकत है, शान है,
इस मुल्क में ये सिर्फ सवारी नहीं लल्ला!

खुशबू मुझे पसंद है तो ये लगी इधर,
गाने नए सुनता हूँ, यहाँ डेक पे जी-भर,
एकाध बार इसमें घुमाया है माल भी,
देखो है दाग अब भी वहां पिछली सीट पर.

अहमक तुझे मालूम नहीं, चीज है फन क्या,
दिल्ली में कार क्या है और बदन की तपन क्या,
घिस जाओगे कंडक्टरों की जूतियों तले,
होती नहीं तुझको कभी यारों से जलन क्या!

हो कार तो पुलिस भी सोचती है सौ दफा,
ठहरे न सामने कोई, पीछे न हो खड़ा,
इज्जत है कार की बहुत और खौफ अलग है,
कुछ भी हो कोई भी कभी कहता नहीं बुरा.

कुछ काम ले अकल से, जोर खोपड़ी पे डाल,
कुछ बैंक से उधार ले, कुछ बाप से निकाल,
कर ले जुगाड़ एक कार का किसी तरह, 
ये चूतिये जो साथ हैं इनको परे हकाल.

आर चेतन क्रांति
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टिप्पणियाँ:-

प्रेरणा पाण्डेय:-
'वेध्य' सबसे सुन्दर कविता। सभी कवितायें सुन्दर और कथ्य में परिपक्व।

आशु दुबे:-
कहन का पैनापन और ताज़गी अच्छी लगी। यह भी नया लगा कि प्रचलित कवितापन से भी ये कविताएं  एक संक्षिप्त अवकाश लेने का साहस रखती हैं। कवि को मेरी बधाई और शुभकामनाएं।

रूपा सिंह:-
बहुत बढ़िया कवितायेँ।क्लासिक टच।पहली और दूसरी हैरान करती हैं अपनी स्फोटक आत्मबल और नैतिकता के मौलिक विचार बोध की प्रस्तुति के कारण।सार्थक हस्तक्षेप।कवि को मान।

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