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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 नवंबर, 2015

अरुंधति रॉय: मैं अपना पुरस्कार क्यों लौटा रही हूँ 

अरुंधति रॉय: मैं अपना पुरस्कार क्यों लौटा रही हूँ 
(अनुवाद: मनोज पटेल)

हालांकि मैं यह नहीं मानती कि पुरस्कार हमारे काम को मापने का कोई पैमाना होते हैं, मैं लौटाए गए पुरस्कारों के बढ़ते ढेर में 1989 में सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए जीता गया अपना राष्ट्रीय पुरस्कार जोड़ना चाहूंगी. इसके अलावा, मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं यह पुरस्कार इसलिए नहीं लौटा रही हूँ क्योंकि मैं मौजूदा सरकार द्वारा पोसी जा रही उस चीज को देखकर "हैरान" हूँ जिसे "बढ़ती असहिष्णुता" कहा जा रहा है. सबसे पहले तो यह कि इंसानों की पीट-पीट कर हत्या, उन्हें गोली मारने, जलाकर मारने और उनकी सामूहिक हत्या के लिए "असहिष्णुता" गलत शब्द है. दूसरे, भविष्य में क्या होने वाला है इसके कई संकेत हमें पहले ही मिल चुके थे, इसलिए इस सरकार के भारी बहुमत से सत्ता में आने के बाद जो कुछ हुआ उसके लिए मैं हैरान होने का दावा नहीं कर सकती. तीसरे, ये भयावह हत्याएँ एक गंभीर बीमारी का लक्षण भर हैं. जीते-जागते लोगों की ज़िंदगी नर्क बनकर रह गई है. करोड़ों दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और ईसाइयों की पूरी-पूरी आबादी दहशत में जीने के लिए मजबूर है कि क्या पता कब और किस तरफ से उनपर हमला बोल दिया जाए.

आज हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसमें नई व्यवस्था के ठग और गिरोहबाज जब "अवैध वध" की बात करते हैं तो उनका मतलब क़त्ल कर दिए गए जीते जागते इंसान से नहीं, मारी गई एक काल्पनिक गाय से होता है. जब वे घटनास्थल से "फॉरेंसिक जांच के लिए सबूत" उठाने की बात करते हैं तो उनका मतलब मार डाले गए आदमी की लाश से नहीं, फ्रिज में मौजूद भोजन से होता है. हम कहते हैं कि हमने "प्रगति" की है लेकिन जब दलितों की हत्या होती है और उनके बच्चों को ज़िंदा जला दिया जाता है तो हमला झेले, मारे जाने, गोली खाए या जेल जाए बिना आज कौन सा लेखक बाबासाहब अम्बेडकर की तरह खुलकर कह सकता है कि, "अछूतों के लिए हिंदुत्व संत्रासों की एक वास्तविक कोठरी है"? कौन लेखक वह सब कुछ लिख सकता है जो सआदत हसन मंटो ने "अंकल सैम के लिए पत्र" में लिखा? इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हम कही जा रही बात से सहमत हैं या असहमत. यदि हमें स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं होगा तो हम बौद्धिक कुपोषण से पीड़ित एक समाज में, मूर्खों के एक देश में बदलकर रह जाएंगे. पूरे उपमहाद्वीप में पतन की एक दौड़ चल रही है जिसमें नया भारत भी जोशो खरोश से शामिल हो गया है. यहां भी अब सेंसरशिप भीड़ को आउटसोर्स कर दी गई है.

मुझे बहुत खुशी है कि मुझे (काफी पहले के अपने अतीत से कहीं) एक राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया है जिसे मैं लौटा सकती हूँ क्योंकि इससे मुझे देश के लेखकों, फिल्मकारों और शिक्षाविदों द्वारा शुरू किए गए एक राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा होने का मौका मिल रहा है. वे एक प्रकार की वैचारिक क्रूरता और हमारी सामूहिक बौद्धिकता पर हमले के विरुद्ध उठ खड़े हुए हैं. यदि इसका मुकाबला हमने अभी नहीं किया तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर बहुत गहरे दफ़न कर देगा. मेरा मानना है कि कलाकार और बुद्धिजीवी इस समय जो कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है जिसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. यह अलग साधनों से की जा रही राजनीति है. इसका हिस्सा होना मेरे लिए गर्व की बात है. और आज इस देश में जो हो रहा है, उसपर मैं बहुत शर्मिंदा भी हूँ.

पुनश्च: रिकार्ड के लिए यह भी बता दूँ कि 2005 में कांग्रेस की सत्ता के दौरान मैंने साहित्य अकादमी सम्मान ठुकरा दिया था. इसलिए कृपया कांग्रेस बनाम भाजपा वाली पुरानी बहस से मुझे बख्शे रहें. अब बात इस सबसे काफी आगे निकल गई है. धन्यवाद!
०००
बयान समूह के साथी कवि अजय जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ.. उनका आभार.
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टिप्पणीयाँ:-

निधि जैन :-
अरुंधति रॉय ने लिखा 'तीसरे, ये भयावह 'हत्याएं' एक गंभीर...'

कितनी हत्याएं हो गईं अब तक?

बाकी कुछ पुरस्कार वापस करने वालों को यही नही पता कि वो पुरस्कार वापस क्यू कर रहे हैं, करना चाहिए या नही,

वापस करके फिर से वापस ले लेना चाहिए...अगर हुक्काम कहे तो,

दादरी हत्याकांड की निंदा सारे देश ने की

पर सिर्फ उसे लेकर जो हमेशा से होता आया है जैसे दलितों के साथ भेदभाव या और भी कुछ... उसको तूल देकर.. सरकार को घेरना गलत है...

सरकार कहीं नहीं कहती कि किसी मुस्लिम की हत्या कीजिये या किसी दलित की हत्या कीजिये

रांची के पास किसी गाँव में 5 औरतों को 'डायन' बताकर जिन्दा जलाया गया था तो ये आज की बात नही हमेशा की बात है और इसके लिए विभिन्न राज्य सरकारें हैं

अब केंद्र सरकार को या तो विकास कर लेने दे या जातियों सम्प्रदायों में घसीट घसीट कर उन्हें काम करने ही न दें और उसके बाद रोवें कहाँ हैं अच्छे दिन..

अरुंधति ने एक बात और लिखी कि उन्होंने साहित्य अकादमी अवार्ड ठुकरा दिया.. पर क्या ये सच नही कि यहाँ चाटुकारों का ही बोल बाला है क्योंकि इस बार कोई चाटुकार शायद मिला नही या और भी कोई कारण रहा हो तो साहित्य अकादमी को ये कहना पड़ गया कि युवा कवियों में कोई भी इस पुरस्कार के योग्य नही।

और बढ़ते सोशल मीडिया के प्रभाव ने पुरस्कार लौटा कर थोडा कवरेज पाने की अभिलाषा ने  उन लोगों को भी जगा दिया जो अँधेरे की गर्त में छुप चुके थे।

कल काफी दिनों बाद रवीना टंडन का नाम पढ़ने को मिला

प्रदीप मिश्र:-
लेखकों का यह हस्तक्षेप ताकतवर और सटीक है। लेकिन यह कुछ घांच पाँच हो रहा है। अरुंधती रॉय या इन जैसे लोगों का नाम जुड़ना इस मुहीम के विरोध में तर्क करनेवाले को अवसर देता है। वैसे भी मैं अरुंधती की वैचारिक समझ से कभी भी एकमत नहीं हो पाता हूँ। यह अवसरवादी कदम जैसा लग रहा है।

आशीष मेहता:-
सम्मान लौटाने का प्रतिरोध शीघ्र सफल हो । सहिष्णुता पुनः स्थापित हो। अनजाने में सही, एक भला तो हो ही गया। स्टॅाक मार्केट नामक सट्टा बाज़ार से विदेशी निवेशकों ने, बढ़ती असहिष्णुता के डर से, हाथ खींच रखे हैं, इन्डेक्स औंधा हुआ पड़ा है। खरीदी का समय विचारा जा सकता है। निवेशक साथी अपना विवेक एवं अपना धन इस्तेमाल करें। कर्ज ले कर तो देश में न किसान की गति है, न बिल्डर की।

हाँ, 'सफाई अभियान' के तहत पटाखे कर्ज पर खरीदने के लिए देश तैयार है। (most electronic portals payments are through credit cards) दिवाली पर हमेशा केन्द्र मे रहना वाला व्यापारी, इस बार हाशिए पर है ( सिर्फ इसलिए नही कि करोड़ों रुपयों की जमा दालें जब्त हो गई..., और भी ग़म हैं ज़माने में...)

तो, इस दिवाली पर माँ सरस्वती (साहित्यकार, वैज्ञानिक, कलाकार) के जलवे है ।
दिवंगत कलबुर्गीजी का आशीष मिले, तो इस बार 'पाने' में बीच वाली जगह में, माँ सरस्वती की तस्वीर प्रस्तावित है।

मार्क्स का पता नहीं, पर लेनिन जरूर असमंजस में होंगें, मौजूदा भारतीय  हालात पर।
बिहार परिणाम के बाद क्या ? भी मौजूं सवाल है।

आशीष मेहता:-
माफ कीजिएगा, भीरु प्रवृत्ति की वजह से सीधा सरल सवाल पूछ नहीं पाता हूँ। कलबुर्गीजी के सम्मान/श्रद्धांजलि बतौर, इस दफे "लक्ष्मी/सरस्वती" को न पूजने के "पक्षधर" कितने होंगें ? BBC शायद मदद करे।

प्रदीप मिश्र:-
आशीष जी सवाल वाजिब है। सम्मान वापसी में भी कुछ डेढ़ बुद्धियों अफवाह था कि सम्मान के साथ लोग धन वापस नहीं कर रहे हैं। यानी सरवती तो वापस हुयी लक्षमी को रख लिया। अब आप इस तुक्षता को क्या कहेंगे।अब उनको कौन बताये की बहुत सारे लेखक ऐसे भी हो सकते हैं। जिन्होंने उधार लेकर पैसा वापस किया होगा। यह काम सिर्फ लेखक ही कर सकता है। इस लिए मैं तो श्रद्धांजली के बतौर लक्षमी क़ी पूजा करूंगा और पूछूँगा की तुम हमेशा गलत पते पर ही क्यों जाती हो। जहां सरस्वती रहती है सिर्फ वही जाया करो। काम से काम तुम्हारा बर्ताव तो सार्थक होगा।वर्ना तुम्हारी आज तक स्थिती तो हम देख ही रहे हैं। अब अपना झगड़ा ख़त्म करों मिल जाओ दोनों बहनें लक्ष्मी और सरस्वती।
नहीं यार यूँ ही थोड़ी मस्ती कर ली। कल के चुनावी रिजल्ट के मनःस्थिति बना रहा हूँ। मुझे लगता है इस बार का चुनाव लोकतंत्र का सबसे मज़ाक था।

आशीष मेहता:-
पर, मेरा सवाल गम्भीरता से उस 'विचारधारा' के लिए था जिसके लिए कलबुर्गीजी की जान गई। क्या उस विचारधारा को भी श्रद्धांजलि दे दी जाए ?

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