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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 अक्तूबर, 2015

ग़ज़ल : नासिर काज़मी

नासिर काज़मी(1923-1972) को पाकिस्तान के प्रमुखतम शायरों में गिना जाता है। इनका जन्म पंजाब के अम्बाला ज़िले में हुआ था; बाद में पाकिस्तान चले गए और वहीँ बस गए। छोटी बहर में बढ़िया और दर्द भरे अशआर कहना इनकी विशेषता थी। आज पढ़ते हैं इनकी तीन ग़ज़लें:

1.
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ

ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ

तेरी गली में सारा दिन
दुःख के कंकर चुनता हूँ

मुझसे आँख मिलाए कौन
मैं तेरा आईना हूँ

मेरा दिया जलाए कौन
मैं तेरा ख़ाली कमरा हूँ

तेरे सिवा मुझे पहने कौन
मैं तेरे तन का कपड़ा हूँ

तू जीवन की भरी गली
मैं जंगल का रस्ता हूँ

आती रुत मुझे रोएगी
जाती रुत का झोंका हूँ

अपनी लहर है अपना रोग
दरिया हूँ और प्यासा हूँ

2.
दिल में और तो क्या रक्खा है
तेरा दर्द छुपा रक्खा है

इतने दुखों की तेज़ हवा में
दिल का दीप जला रक्खा है

धूप से चेहरों ने दुनिया में
क्या अंधेर मचा रक्खा है

इस नगरी के कुछ लोगों ने
दुःख का नाम दवा रक्खा है

वादा-ए-यार की बात न छेड़ो
ये धोखा भी खा रक्खा है

भूल भी जाओ बीती बातें
इन बातों में क्या रक्खा है

चुप-चुप क्यूँ रहते हो 'नासिर'
ये क्या रोग लगा रक्खा है

3.
नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किसके लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया, मैं बाहर जाऊँ किसके लिए

जिस धूप की दिल में ठंडक थी, वो धूप उसी के साथ गयी
इन जलती-बलती गलियों में अब ख़ाक उड़ाऊँ किसके लिए

वो शहर में था तो उसके लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किसके लिए

अब शहर में उसका बदल ही नहीं, कोई वैसा जान-ए-ग़ज़ल ही नहीं
ऐवान-ए-ग़ज़ल में लफ़्ज़ों के गुल-दान सजाऊँ किसके लिए
(बदल - बराबरी; जान-ए-ग़ज़ल - ग़ज़ल की जान; ऐवान-ए-ग़ज़ल - शायरी सुनाने का हॉल)

मुद्दत से कोई आया न गया, सुनसान पड़ी है घर की फ़ज़ा
इन ख़ाली कमरों में 'नासिर' अब शम्अ जलाऊँ किसके लिए
(फ़ज़ा - वातावरण; शम्अ - शमा/रौशनी)

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टिप्पणीयाँ:-

सुषमा अवधूत :-

Bahut badhiya gazle ,dhanywad,o pichle rut ke sathi........kya bat hai,mera diya jalaye koun............,very nice

मनीषा जैन :-
तीनों ही ग़ज़लें बहुत बढ़िया। दिल में उतर कर अपनी सी बात कहती ग़ज़लें। शानदार चुनाव फरहत जी का।

फ़रहत अली खान:-
शुक्रिया सुषमा जी, मनीषा जी।

बाक़ी साथी भी प्रस्तुत ग़ज़लों के प्रति अपने विचारों से अवगत कराएँ।
दूसरी ग़ज़ल पढ़कर आपको एक मशहूर बॉलीवुड गाना ज़रूर याद आया होगा।
वो पूरा गाना इसी ग़ज़ल से प्रेरित प्रतीत होता है।
ऐसे बहुत से गाने हुए हैं जो पुराने ज़माने की ग़ज़लों/कविताओं से प्रेरणा(या कुछ पंक्तियाँ) लेकर लिखे गए हैं।
साथी ये भी बताएँ कि (अगर आए तो) कौन कौन से अशआर उन्हें पसंद आए।

सुवर्णा :-

बढ़िया ग़ज़लें। जी फ़रहत जी दूसरी ग़ज़ल से प्रेरित "और इस दिल में क्या रक्खा है तेरा ही दर्द छुपा रक्खा है.." इसी गाने की बात कर रहे हैं न।
पहली ग़ज़ल पापा बहुत सुना करते थे। बहुत अच्छी ग़ज़ल है। अलबत्ता तीसरी पहली बार पढ़ी मैंने।

मीना शाह :-

सभी गज़लें एक से बढ़कर एक
अपनी धुन में रहता हूँ ग़ज़ल गुलाम अली ने बहुत ही बढ़िया गए हाउ फरहत जी
शुक्रिया फरहत जी और मनीष जी

फ़रहत अली खान:-

सुवर्णा जी;
जी, सही पहचाना।
और भी ऐसी कई ग़ज़लें वक़्त-वक़्त पर सामने आती रहती हैं जिन्हें गाया गया या जिन्हें कुछ फेर-बदल करके गाने की शक्ल में गाया गया।
अच्छा लगा जानकर कि आपकी बचपन की भी यादें जुड़ी हैं पहली ग़ज़ल से।

फ़रहत अली खान:-

मुझे जो अशआर सबसे ज़्यादा पसंद आए, उनका ज़िक्र ज़रूर करूँगा:

अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ

ओ पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ

तेरी गली में सारा दिन
दुःख के कंकर चुनता हूँ

धूप से चेहरों ने दुनिया में
क्या अंधेर मचा रक्खा है

नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किसके लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया, मैं बाहर जाऊँ किसके लिए

धन्यवाद अर्चना जी, कुंदा जी।

छोटी बहर के ये बेहतरीन शायर माने जाते हैं। इनके अलावा कुछ नाम और भी हैं जिन्हें छोटी बहर की ग़ज़लें कहने में महारत हासिल थी।
उनमें से एक नाम जो अभी याद आ रहा है, वो है 'ख़ुमार बाराबंकवी'।

मनीषा जैन :-
सभी साथियों का ग़ज़ल पर चर्चा करने का शुक्रिया।
जो साथी जो व्यस्त रहते हैं वे भी प्रतिक्रिया दिया करें। एडमिन रचनाओं का संग्रह करने व पोस्ट बनाने में काफी मेहनत व समय देते है इसलिए रचनाये पढ़कर अपनी राय अवश्य दीजिए। अच्छा लगता है। है ना !
सादर

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