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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अगस्त, 2015

ग़ज़ल : इकबाल अशहर साहब

प्रस्तुत हैं मौजूदा वक़्त में देश के सबसे मशहूर और बेहतरीन शायरों में शुमार किए जाने वाले इक़बाल अशहर साहब(जन्म - 1965) की चार ग़ज़लें। बिना किसी लाग-लपेट के दिलकश शेर कह जाना इनकी खासियत है।

1.
सिलसिला ख़त्म हुआ जलने-जलाने वाला
अब कोई ख़्वाब नहीं नींद उड़ाने वाला

क्या करे आँख जो पथराने की ख़्वाहिश न करे
ख़्वाब हो जाए अगर ख़्वाब दिखाने वाला

याद आता है कि मैं ख़ुद से यहीं बिछड़ा था
ये ही रस्ता है तेरे शहर को जाने वाला

ऐ हवा उस से ये कहना कि सलामत है अभी
तेरे फूलों को किताबों में छुपाने वाला

ज़िन्दगी अपनी अंधेरों में बसर करता है
तेरे आँचल को सितारों से सजाने वाला

सब ही अपने नज़र आते हैं ब-ज़ाहिर लेकिन
रूठने वाला है कोई न मनाने वाला
(ब-ज़ाहिर - ज़ाहिरी तौर पर/सामने से)

ले गयीं दूर, बहुत दूर हवाएँ जिस को
वो ही बादल था मेरी प्यास बुझाने वाला

2.
दयार-ए-दिल में नया-नया सा चिराग़ कोई जला रहा है
मैं जिसकी दस्तक का मुन्तज़िर था, मुझे वो लम्हा बुला रहा है
(दयार-ए-दिल - दिल का घर; मुन्तज़िर - प्रतीक्षारत)

फिर अध-खुला सा कोई दरीचा मेरे तसव्वुर पे छा रहा है
ये खोया-खोया सा चांद जैसे तेरी कहानी सुना रहा है
(दरीचा - खिड़की; तसव्वुर - कल्पना)

वो रौशनी की तलब में गुम है, मैं ख़ुश-बुओँ की तलाश में हूँ
मैं दायरों से निकल रहा हूँ, वो दायरों में समा रहा है
(तलब - इच्छा/चाहत; दायरा - वृत्त)

वो कम-सिनी की शफ़ीक़ यादें गुलाब बनकर महक उठी हैं
उदास शब की ख़ामोशियों में ये कौन लोरी सुना रहा है
(कम-सिनी - कम-उम्री/लड़कपन/बचपन; शफ़ीक़ - प्यारी/दोस्ताना; शब - रात)

सुनो समंदर की शोख़ लहरों हवाएँ ठहरीं हैं तुम भी ठहरो
वो दूर साहिल पे एक बच्चा अभी घरौंदे बना रहा है
(शोख़ - चंचल; साहिल - किनारा)

3.
प्यास दरिया की निगाहों से छुपा रक्खी है
एक बादल से बड़ी आस लगा रक्खी है

तेरी आँखों की कशिश कैसे तुझे समझाऊँ
इन चिराग़ों ने मेरी नींद उड़ा रक्खी है
(कशिश - आकर्षण)

क्यूँ न आ जाए महकने का हुनर लफ़्ज़ों को
तेरी चिट्ठी जो किताबों में छुपा रक्खी है

तेरी बातों को छुपाना नहीं आता मुझ से
तू ने ख़ुश-बू मेरे लहजे में बसा रक्खी है
(लहजा - बात करने का अंदाज़)

ख़ुद को तन्हा न समझ लेना नए दीवानों
ख़ाक सहराओं की हमने भी उड़ा रक्खी है
(ख़ाक - धूल; सेहरा - रेगिस्तान/मरुस्थल)

4.
ठहरी ठहरी सी तबीयत में रवानी आई
आज फिर याद मुहब्बत की कहानी आई
(रवानी - तेज़ी/बहाव)

आज फिर नीँद को आँखों से बिछड़ते देखा
आज फिर याद कोई चोट पुरानी आई

मुद्दतों बाद चला है मेरा जादू उन पर
मुद्दतों बाद हमें बात बनानी आई

मुद्दतों बाद पशेमाँ हुआ दरिया हमसे
मुद्दतों बाद हमें प्यास छुपानी आई
(पशेमाँ - शर्मिन्दा)

मुद्दतों बाद मय्यसर हुआ माँ का आँचल
मुद्दतों बाद हमें नीँद सुहानी आई
(मयस्सर होना - पाना/मिलना)

इतनी आसानी से मिलती नहीं फ़न की दौलत
ढल गयी उम्र तो ग़ज़लों पे जवानी आई
(फ़न - हुनर)

प्रस्तुति:-फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

मनीषा जैन :-
जी जरूर अलका जी। फरहत साहब को जब भी समय मिले जरूर प्रकाश डालें।

आज की प्रस्तुति समूह के साथी फरहत जी की है।

सुवर्णा :-
अलका जी फ़रहत जी मीटर पर प्रकाश डालेंगे तब तक थोड़ी शुरुवात कर सकते हैं। जैसे दूसरी ग़ज़ल का मीटर बड़ा प्यारा लगा।
दयार-ए-दिल में    नया नया सा  चिराग कोई   जला रहा है।
12122  12122  12122  12122
इस मीटर पर पूरी ग़ज़ल को पढ़ने की कोशिश कीजिए।

फ़रहत अली खान:-
प्रज्ञा जी, अलका जी, सुषमा जी, मनीषा जी, कुंदा जी, सुवर्णा जी...
आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
अलका जी,
सुवर्णा जी ने बिल्कुल सही बतायी दूसरी ग़ज़ल की बहर(यानी मीटर)।
ये लंबी बहर है जिस पर कहे गए शेर ज़रा लंबे होते हैं लेकिन ये बेहद प्रचलित बहर है।
सुवर्णा जी ख़ुद भी एक बा-कमाल शायरा हैं।
ऑफिस से निकल कर बहर के बारे में कुछ और बात करूँगा।
तब तक साथी आज की ग़ज़लों पर चर्चा जारी रखें और अपने पसंदीदा अशआर का भी ज़िक्र करें।

अंजनी शर्मा:-
हमेशा की तरह फरहतजी की उम्दा प्रस्तुति ।
उर्दू भाषा के बेहतरीन साहित्य से परिचित कराने के लिए फरहतजी को धन्यवाद ।

अंजनी शर्मा:-
हमेशा की तरह फरहतजी की उम्दा प्रस्तुति ।
उर्दू भाषा के बेहतरीन साहित्य से परिचित कराने के लिए फरहतजी को धन्यवाद

सुवर्णा :-
शुक्रिया फ़रहत जी शायरा तो नही पर पढ़ने में मज़ा खूब आता है। बहुत सारा पढ़ते हुए थोड़ा कुछ कहने की कोशिश हो जाती है। पर आज की ग़ज़लों में हासिल-ए-ग़ज़ल शेर ढूँढना बहुत मुश्किल है। उम्दा चयन।

ब्रजेश कानूनगो:-
प्यास दरिया की निगाहों से छुपा रक्खी है
एक बादल से बड़ी आस लगा रक्खी है।

इस के समकालीन मौजूं अर्थ भी खुलते हैं।इसलिए यह मुझे हासिल हुआ है।फरहत भाई।

कविता वर्मा:-
फरहत जी बेहद उम्दा गज़ले । राखी की व्यस्तता है इसलिये ज्यादा कुछ नही कह पाऊॅंगी ।

फ़रहत अली खान:-
अंजनी जी, ब्रजेश जी, कविता जी;
धन्यवाद।
रक्षाबंधन पर सभी साथियों को हार्दिक शुभकामनाएँ।

मनीषा जैन :-
मित्रो, कल राखी के पावन पर्व पर नियमित पोस्ट के स्थान पर क्यों न रक्षाबंधन के पर्व को और खूबसूरत बनाएं,  इसलिए समूह ने निर्णय लिया है कि सभी सदस्य अपने भाई बहन के प्रेम को समर्पित कोई छोटी कविता या गीत, दोहा पोस्ट करें जिससे पर्व की रोचकता व उल्लास बना रहे।

फ़रहत अली खान:-
रेनुका जी, मनीषा जी, मुकेश जी, नाज़िया जी, गरिमा जी, राजपूत सर;
आप सभी ने इक़बाल साहब के कलाम को सराहा इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

फ़रहत अली खान:-
गरिमा जी; मेरी कोशिश रहती है कि बेहतर से बेहतर कलाम लेकर आऊँ। कभी कभी ये भी कोशिश रहती है कि उन शायरों से रू ब रू कराऊँ जिनको हमारी पीढ़ी कम ही जानती है। ये तो आप लोगों का साहित्य-प्रेम है कि  इतनी लम्बी लम्बी पोस्ट पढ़कर सराहना करते हैं। यक़ीन कीजिये कि इसमें मेरा कोई कमाल नहीं है।

बलविंदर:-
दौर-ए-हाज़िर के बड़े मक़बूल शाइर हैं इक़बाल अशहर साहब, इन की पेशकर्दा ग़ज़लें भी ख़ूब हैं। शाइर को मुबारकबाद' और हम तक पहुंचाने की ज़हमत उठाने के लिए एडमिन का बहुत बहुत शुक्रिया

बलविंदर:-
इन की पहली ग़ज़ल से एक शे'र और हाज़िर है....

ये वो सहरा है सुझाए ना अगर तू रस्ता
ख़ाक हो जाए यहां ख़ाक उड़ाने वाले

बलविंदर:-
दूसरी ग़ज़ल के आख़िरी शेर् को देख कर "निदा फ़ाज़ली' याद आ गए..फ़रमाते हैं..

ऐ शाम के फ़रिश्तो ज़रा देख के चलो
बच्चो ने साहिलों पर घरौंदे बनाये हैं

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
सही कहा बलविंदर जी
'आ' जैसे आसान और हरदिल अज़ीज़ काफ़िये के हिसाब से समान शब्दों की punravatti खटकती है

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