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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अगस्त, 2015

कहानी : अनदेखे अहसास : रेणुका

आज पढ़ते हैं समूह के साथी की कहानी। आप सब खुलकर अपने विचार व्यक्त करें जिससे रचनाकार को कुछ लाभ प्राप्त हो सके-

    अनदेखे अहसास
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शाम हो चली है. रात की ओर इशारा करते हुए सर्दियों की मीठी धूप गुम हो चली है. मेरे घर में मातम छाया हुआ है. माँ बिलख-बिलख कर आँसू बहा रही हैं, तो बाबा बिल्कुल मौन धारे बैठे हैं. सारा घर रिश्तेदारों की भीड़ में समाया हुआ है, मानो कोई सैलाब टूट पड़ा हो. कोई इधर आपस में बात-चीत कर रहा हैं, तो कोई उधर माँ-बाबा को सांत्वना दे रहा है. बारह वर्ष की उम्र की मैं, कुछ समझ नहीं पा रही हूँ कि आखिर हुआ क्या है?
 
दीदी अभी तक कॉलेज से नहीं लौटी है. रोज़ तो वह चार बजे ही लौट आती है, फिर आज क्यों नहीं आई? माँ से पूछने जाती हूँ तो वह और तेज़ स्वर में रोने लगती हैं. बाबा तो बस मुझ पर ही झल्ला कर कहते हैं, “जा, तू भी उसी की तरह भाग जा !” रोती हुई मैं अपने आठ वर्षीय अनुज भाई दक्ष के पास जाकर बैठ जाती हूँ. “तू भी उसी की तरह भाग जा !” मुझे बाबा के ये शब्द समझ नहीं आ रहे हैं. अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए मैं दक्ष के साथ खेलने लगती हूँ. दक्ष के साथ खेलते हुए मैं कुछ पल के लिए आस-पास की घटनाओं से अपने-आप को अलग कर लेती हूँ.
 
रात के दस बज चले हैं. धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार जाने लगे हैं. आखिर में माँ-बाबा को अकेला पाकर मैं एक बार फिर हिम्मत जुटाती हूँ. पहले दक्ष को खाना खिलाकर सुला देती हूँ. फिर एक थाली में खाना लेकर माँ के पास जाती हूँ. अपने नन्हे प्यार-भरे हाथों से माँ के आँसू पोछती हूँ और उनके मुंह में रोटी डालकर कहती हूँ, “माँ, तुमने आज सुबह से कुछ नहीं खाया है. थोड़ा खा लो वर्ना बीमार पड़ जाओगी.” सुनते ही माँ मुझे गले से लगा लेती हैं. यह सब देख कर बाबा का भी गला रूंध जाता है.
 
थक कर कब मेरी आँख लग जाती है, पता ही नहीं चलता. अगले दिन सुबह जब नींद खुलती है तो देखती हूँ कि माँ-बाबा तैयार होकर कहीं जाने को हैं. दीदी अभी भी कहीं दीख नहीं रही है. माँ मुझे बुलाकर कहती हैं, “ नीरू, हम तुम्हारी दीदी को लेने जा रहे हैं, देर हो जाएगी. तुम घर एवम् दक्ष का ख़याल रखना.” आज्ञाकारी बेटी का फ़र्ज़ निभाते हुए मैं “जी माँ” कह देती हूँ. माँ-बाबा के जाने पर घर का दरवाज़ा बंद कर गृहस्थी के कामों में जुट जाती हूँ. अपनी दीदी के घर लौट आने की खबर ने मुझे खूब उत्साहित कर दिया है. दक्ष को खेल में लगाकर मैं कोने में बैठ कर यूँ ही पिछले दिनों घर में घटित कुछ घटनाओं के बारे में सोचने लगती हूँ.
 
याद आ रहा है वो समय जब मैं महज सात-आठ साल की थी; तब परिवार सहित अपने बचपन का शहर हमेशा के लिए छोड़ कर एक बड़े नए शहर में आई थी. पुराने शहर, घर, स्कूल और दोस्तों से यूँ बिछड़ना मेरे लिए अत्यंत भारी पड़ रहा था. मानो अपने बाबुल का शहर छूट गया हो और वहाँ से विदा होकर एक पराये शहर से नाता जोड़ना हो. अभी सब कुछ नए सिरे से समझना था, नए “आस-पास” को अपनाना था, नए दोस्त बनाने थे, और नयी जीवन-शैली भी.
 
किन्तु ये सब हो पाता उससे पहले ही मुझे एक अनोखी ज़िम्मेदारी दे दी गयी; जासूसी करने की ज़िम्मेदारी! हाँ, अपनी ही दीदी की जासूसी ! मैं एक नन्ही-सी जान, न तो कुछ समझ पा रही थी और न ही कुछ सोच पा रही थी. बस मुझसे जैसा करने को कहा जा रहा था, वैसा ही करती जा रही थी. माँ-बाबा के डर से किसी से कुछ नहीं कहती थी. सुबह स्कूल जाती थी, आकर घर के छोटे-छोटे काम, और फिर पढाई, बाकी समय दीदी की जासूसी. हर रोज़ मुझसे पूछा जाता, “दीदी कल क्या कर रही थी? कहाँ जा रही थी? किससे बातें कर रही थी?” इत्यादि. अक्सर मैं माँ-बाबा को दीदी से कहते हुए सुनती, “तू अभी बच्ची है. पढाई करने की उम्र में यह सब शोभा नहीं देता.” इन सब बातों का अर्थ भला मुझे क्या समझ आता? बस इतना समझती की दीदी ने शायद कोई शैतानी की होगी जो माँ-बाबा उसे डांट रहे हैं. मैं तो अच्छी बच्ची हूँ जो उनका कहा मानती हूँ तथा उन्हें परेशान नहीं करती. यही सकारात्मक सोच लिए मैं दीदी की जासूसी करती रहती.
 
सुना है दो बहनों का सम्बन्ध बहुत गहरा होता है - एक अनोखा-अटूट बंधन, दिल के करीब होने का बंधन. परन्तु यहाँ तो स्थिति बिलकुल विपरीत बन रही थी. दीदी मुझसे कटी-कटी-सी रहने लगी. फलःस्वरूप मैं उसके पास आने से पहले ही उससे दूर हो चली थी. जब कभी मैं उत्साहित मन से अपनी दीदी के पास जाती, तो दीदी अपने द्वेषपूर्ण और कटाक्ष-भरे जुमलों से मुझे परास्त कर देती. मैं कभी सोचती की माँ-बाबा से शिकायत करूँ, लेकिन उनके पास फुर्सत ही कहाँ थी मेरी भावनात्मक दशा समझने के लिए. उन्हें तो मुझसे बस दीदी के विषय में ही जानने की रूचि रहती. धीरे-धीरे मेरा वजूद शायद कहीं खो चला था.
 
सोचती हूँ ऐसा क्यों होता है कि मंझली संतान को अपना अस्तित्व साबित करने के लिए बड़े और छोटे की अपेक्षा सबसे ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है. बड़ा बच्चा तो बड़ा और उम्मीदों का प्रतिफलन होता है; सबसे छोटे की सौ गलतियाँ माफ़, वो तो छोटा ही रहता है न, हमेशा. मंझली संतान अक्सर परिवार की संरचना में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के प्रयास में लगी रहती है........कभी-कभी उम्र भर.
 
घर के कोने में बैठे ऐसी कुछ यादें मेरी आँखों के सामने आ रही हैं. अचानक दरवाज़े की घंटी बजती है और मेरी तन्द्रा टूटती है. दौड़ कर जब मैं दरवाज़ा खोलती हूँ तो अपनी दीदी को अपने सामने पाती हूँ. आवेग और प्रसन्नता से मैं दीदी से लिपट जाती हूँ. “दीदी, तुम कहाँ चली गयी थी? अब मैं कभी तुम्हें परेशान नहीं करूंगी. तुम्हारी किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाऊंगी. तुम बस मुझे छोड़ कर मत जाना..........” बोलते-बोलते मेरा गला रूंध गया है.......दीदी, मेरी दीदी...........

000 रेणुका
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टिप्पणियाँ

गरिमा श्रीवास्तव:-
अच्छी कहानी।अछूता विषय जो मध्यवर्गीय परिवार में मंझली संतान के मनोविज्ञान को उकेरता है।

सुवर्णा :-
जी सुषमा जी से मै भी सहमत हूँ। कहानी अच्छी है पर अंत थोडा सा जल्दबाज़ी में हुआ सा लगता है। बहरहाल मंझली संतान का मनोविज्ञान समझने की कोशिश अच्छी लगी।

किसलय पांचोली:-
कहानी का कथानक नयापन लिए हुए है। शुरुवात अच्छी है। सही है कि  परवरिश में मंझली संतान के हिस्से का सुख अक्सर कुछ  कमतर रह जाता है। लेकिन इस कहानी के अंत में बहनों का मिलाप मूल कहानी पर थोपा हुआ लग रहा है और समय का निर्वहन भी समझ नहीं आया।

गरिमा श्रीवास्तव:-
कहानी जीवन के पहलू की ओर  ध्यान आकृष्ट करती है।एक मासूम बच्ची जो जासूसी का अर्थ नही जानती।पारिवारिक राजनीति का शिकार होती है।केट मिलेट ने जिसे गुड़ गर्ल सिंड्रोम कहा था।मंझला बच्चा अक्सर उपेक्षित रह जाता है वह न वात्सल्य का पहला साध्य है न अंतिम।उसे माँ बाप के प्यार के लिए दोहरी कोशिश करनी होती है और कहानी यह बताती है कि अभिभावक भी संतान का इस्तेमाल करते है।बच्ची को सिर्फ प्यार चाहिए माँ का बहन का पिता का।और वह इसके लिए कुछ भी करने को तैयार है।और काम ख़त्म होते ही बच्ची की अल्पकालिक उपादेयता भी शेष हो जाती है।मध्यवर्ग के परिवारों के एक पहलू का यथार्थ चित्रण।लेकिन लिखने में अभ्यास की सख्त ज़रूरत।और यह समूह तो इसलिए है ही।

प्रज्ञा :-
कहानी बच्ची के मनोविज्ञान को बड़े सहज रूप में रखती है। कई परिवारों में लड़कियां बच्चे इसी चौकीदारी के काम की और धकेले जाते हैं। कम वय में अनुत्पादक कामों में प्रवृत्त किये जाने से बाल मन पर पड़ती अनेक दरारें कितनी घातक होती हैं कहानी कुछ और घटनाओं के बयान से और बेहतर बता पाती। मेरा मानना है इस विषय पर काम होना चाहिए। असमय बच्चों को चौकन्ना करना और अपने ही भाई बहनों के बीच दीवारें खड़ी करना और माता पिता और बहन के बीच बच्ची कितने अत्याचार अपने मन पर झेलती होगी। ये कहानी अभी और लिखी जानी चाहिए थी। दूसरी लड़की का पक्ष इसे अधिक विश्लेषण की गुंजाइश देता।

नयना (आरती) :-
अपनी बात रखने के लिए शब्दो की बुनावट करते तक प्रज्ञा जी की टिप्पणी आ गई।उनके विचार से सहमत हूँ। कहानी मनोवैज्ञानिक पक्ष उत्तम है लेकिन कहानी कथन में अधूरी लगी ,आगे बढाई जा सकती है।

गरिमा श्रीवास्तव:-
प्रज्ञा जी और नयना जी से सहमत हूँ।कहानी को और आगे बढ़ना चाहिए।हो सकता है आगे पढ़ने को मिले।

कविता वर्मा:-
एक नये विषय के साथ लिखी अच्छी कहानी सहमत हूॅ सभी से थोड़ा विस्तार जरूरी है बहरहाल अच्छी कहानी । बधाई।

नंदकिशोर बर्वे :-
कहानी का विषय चयन उत्तम। लेकिन कहन के स्तर पर कसावट की दरकार। बड़ी बहन क्या करती है यह पाठकों के अनुमान पर है। वह कहाँ चली गई थी। माँ पिता उसे ढूंढने गये लेकिन वापस लौटे नहीं ये सब बातें कहानी को परिपूर्ण होने नहीं देती। लेखिका पुनः कुछ दिनों बाद पढ़ें और फिर लिखेंगी तो बात बन जायेगी।

फ़रहत अली खान:-
अभी अभी पढ़ी कहानी।
अच्छी कहानी है, एक बारह साल की बच्ची के जज़्बात ख़ूबी के साथ उकेरे गए हैं। बधाई रेनुका जी।
बस वो अंत में अधूरेपन का जो एहसास सबको हुआ सो मुझे भी हुआ। या तो कहानी को आगे बढ़ाकर या बीच में कुछ ख़ुलासे शामिल करके ये कमी दूर की जा सकती है।
माँ-बाप को जब इस बात का पता था कि बड़ी लड़की किसी के साथ चली गयी है तो ऐसे में उनके द्वारा ये ख़बर इतने ढेर सारे रिश्तेदारों को बता देना कि उनसे पूरा घर भर जाए, ये बात कुछ अजीब सी लगी; अमूमन शादी-ब्याह या किसी मातम के मौक़े पर इतनी भीड़ होना समझा जा सकता है लेकिन बदनामी वाले मामले में सब तक ख़बर पहुँचा देना समझ नहीं आया।
इसके अलावा 'घर' 'भीड़' में नहीं समाता, बल्कि 'भीड़' 'घर' में समाती है।��

गरिमा श्रीवास्तव:-
मनीषा और कविता जी आप लोगों की सक्रियता और रुझान काबिले तारीफ है और यह बिजूका मुझे सबसे आत्मीय समूह लगता है।लोकतान्त्रिक भी।आपके साथ फरहत भाई प्रज्ञा रोहिणी,निधीजी,अर्चना जी ,सत्य जी सबसे साक्षात् न होने पर भी रोज मिलना होता है।इतना मिलना और आत्मीय खुली बातचीत तो परिवार जनों के बीच भी रोज़ संभव नहीं हो पाती।मैं तो आपकी ही गरिमा हूँ मनीषा जी।निश्चिन्त रहिये।सादर।

मनीषा जैन :-
बहुत शुक्रिया,  इस आत्मीयता के लिए गरिमा जी। आप सबों की टिप्पणियाँ जब तक नही आ जाती उस दिन अधूरापन सा लगता है। और फरहत जी तो हमारे समूह की शान हैं। बिन एडमिन हो कर भी शुक्रवार की जिम्मेवारी वहन करते हैं आप सभी बहुत प्रिय हैं।

फ़रहत अली खान:-
गरिमा जी की बात पर एक सुपरलाइक।
बिल्कुल सही कहा आपने। सभी लोग रोज़ ऐसे मिलते हैं जैसे पुराने साथी हों और आमने-सामने मुलाक़ात कर रहे हों।
ऐसा माहौल बनाने के लिए आप सभी का शुक्रिया।

गरिमा श्रीवास्तव:-
और इसके लिए हम सभी आपके शुक्रगुज़ार हैं।ऐसा लगता है कहीं किसी ट्रेन बस जहाज़ में ,में मिलें तो सब एक दूसरे को तुरंत पहचान लेंगें,और अपरिचय के इस दौर में भी आत्मीयों की तरह सुख दुःख पूछने लगेंगें।आँखे भीग जाएँगी ठहाके लगने लगेंगे और ....विदा के बाद फिर मिलने के वायदे किये जायेंगे।

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