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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 जुलाई, 2015

कहानी : अंतिम इच्छा : अरुण यादव

॥अंतिम इच्छा॥

‘‘किशन, पूरे  गाँव और आस-पास खबर करवा दो कि अन्त्येष्टि दोपहर दो बजे होगी।‘‘ गोविन्द के इस वाक्य से रात के दूसरे पहर की निस्तब्धता भंग हो गई।

‘‘हूँ‘‘किशन ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

  आज दद्दा अपनी जीवन-यात्रा समाप्त कर चिरनिद्रा में लीन हैं। रात में छोटी बहू जब लोटा में पानी रखने आई तो देखा दद्दा के शरीर में कोई हलचल नहीं थी। तत्काल हवेली से स्त्रियों के रोने की आवाज़ें आने लगीं। फिर भी, गाँव की रिवायत की अपेक्षा रोना सीमित ही था, क्योंकि दद्दा की मृत्यु के लिए घर वाले मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे। पिछले एक बरस से दद्दा बीमारी के कारण बिस्तर से लगे थे। उनकी तीमारदारी करते-करते घर के लोग थक चुके थे। उनकी जर्जर देह में प्राण न जाने क्यों एक वर्ष तक अटके रहे, कोई नहीं जानता।

                उनके तीनों बेटे गोविन्द, माधव और किशन, साथ में पड़ोस के कुछ लोग भी दद्दा की देह को घेर कर रात कटने का इंतज़ार कर रहे हैं, लेकिन रात है कि कटने का नाम ही नहीं ले रही। सभी को लग रहा था कि आज रात कुछ लंबी हो गई है। लगे भी क्यों न जब घर में बेजान शरीर पड़ा हो तो एक-एक क्षण पहाड़-सा जान पड़ता है।

                दद्दा का मूल नाम शिवचरण था, लेकिन पूरा लक्ष्मणपुर गाँव उन्हें दद्दा के नाम से जानता और पुकारता था। उनकी धर्म-कर्म में रुचि, ख़ासकर कृष्ण-भक्ति तो जगजाहिर थी। उन पर श्रीकृष्ण का इतना प्रभाव था कि उन्होंने अपने तीनों बेटों के नाम कृष्ण के नाम पर ही रखे, अर्थात् गोविन्द, माधव और किशन ।

                जब बनारस से पंडित बृजभूषण महाराज, लक्ष्मणपुर गाँव आते तो दद्दा ही उनकी भागवत-कथा का सारा इन्तज़ाम करते। पूरे सात दिन चलती थी उनकी भागवत-कथा। इस दौरान पंडित बृजभूषण महाराज के खाने-पीने और ठहरने की व्यवस्था दद्दा की हवेली में होता। गाँव का शायद ही कोई धार्मिक या सामाजिक कार्य दद्दा के बिना पूरा होता हो।

                लक्ष्मणपुर गाँव में केवल दद्दा के पास ही पचास एकड़ सिंचाई वाली ज़मीन थी। ज़मीन क्या थी सोने की खान थी। एक बोरा अनाज डालो तो बीस बोरा उगलती थी। कुछ दद्दा का पुरुषार्थ था तो कुछ लक्ष्मी की कृपा। धन-धान्य से भरे-पूरे होने के बाद भी दद्दा अहंकार और छोटे-बड़े की भावना से कोसों दूर थे। गाँव वालों की खुशी या ग़म में दद्दा बराबर मौज़ूद रहते और ज़रूरत पड़ने पर लोगों की भरपूर मदद भी करते। इसलिए दद्दा की संपन्नता से गाँव के किसी भी व्यक्ति को चुभन नहीं होती थी, बल्कि उनकी समृद्धि और खुशहाली के लिए सारा गाँव दुआएँ करता।

                लक्ष्मणपुर गाँव उस घटना को कैसे भूल सकता है, जब हल्के की छोटी बेटी की बारात पड़ोसी गाँव खैरा से आई थी। सब कुछ तो ठीक था, लेकिन पैर-पुजाई की रस्म में दूल्हे राजा अड़ गए भैंस के लिए। अब हल्के की इतनी औक़ात तो थी नहीं कि तुरंत एक भैंस खड़ी कर दे। पगड़ी रख दी दूल्हे के बाप गिरधारी के क़दमों में। लेकिन वो ठहरा कड़क पत्थर, ज़रा भी नहीं पिघला।

                ‘‘जिसकी एक भैंस की औकात नहीं है, उससे रिश्‍ता जोड़ने से क्या फायदा..... चलो भाइयो इनसे हमारी नहीं निभेगी‘‘-हाथ नचा कर दूल्हे का बाप बारात लौटाने की तैयारी करने लगा।

                ‘‘ठहरो‘‘ एक रौबदार आवाज़ ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। वो आवाज़ दद्दा की थी। ‘‘हल्के अपने छोकरा से कहो कि जाकर हमारी सार (डेयरी) से एक मुर्रा भैंस खोल कर दे आए..... और सुनो गिरधारी, तुम एक भैंस की औकात की बात कर रहे थे, अरे लक्ष्मणपुर गाँव की इतनी औकात है कि तुम्हारा मुँह काला करके खैरा तक छोड़ के आ सकता है।

                तुरंत दद्दा की सार से एक मुर्रा भैंस खुलवा कर पैर-पुजाई की रस्म पूरी कराई गई। लड़की के पिता हल्के, भरी आँखों से दद्दा को देखे जा रहा था, इससे पहले कि हल्के, दद्दा के क़दमों में झुकता, दद्दा ने उसे गले लगा लिया।

                ऐसे थे दद्दा। ये तो एक किस्सा है। ऐसे न जाने कितने किस्से हैं, जो लक्ष्मणपुर के लोगों को मुँहजुबानी याद हैं। दद्दा जीते जी गाँव के लिए एक किंवदंती बन चुके थे। लेकिन कहते हैं न कि समय के विराट कालखण्ड में उम्र अपने पैने दाँत गड़ा देती है। ठीक वैसा ही दद्दा के साथ हुआ। उम्र जैसे-जैसे ढलने लगी, घर की बागडोर भी दद्दा से ढीली होने लगी। लड़कों ने घर का सारा कामकाम संभाल लिया था। घर के महत्वपूर्ण निर्णयों में दद्दा का दखल धीरे-धीरे कम होता गया। लड़कों की मेहनत और लगन से संपत्ति और बढ़ी। अब गाँव के साथ-साथ शहर में भी उनका कारोबार फलने-फूलने लगा। गाँव की हवेली के साथ शहर में भी आलीषान कोठी उनकी सम्पन्नता की कहानी कह रही थी। इसीलिए तो दद्दा के बेटों का एक पैर गाँव में तो दूसरा शहर में रहता। घर में बेलगाड़ी की जगह कार और मोटर सायकलों ने ले ली। घर का प्रत्येक सदस्य मोबाइल फोन से लैस रहता। बड़े बेटे गोविन्द का लड़का शहर में इंजीनियरिंग के दूसरे वर्ष में पढ़ाई कर रहा था। दूसरे भाइयों के बेटे-बेटियाँ भी शहर के नामी स्कूलों में पढ़ाई कर रहे थे।

                लेकिन आर्थिक समृद्धि के साथ गाँव वालों से दद्दा के परिवार के आत्मीय रिश्‍ते  कमज़ोर पड़ने लगे। शहर की भौतिकता और चकाचैंध में गाँव के रिश्‍तों की अहमियत कहीं पीछे छूट गई। अब सब कुछ लाभ-हानि के तराजू पर तौला जाने लगा था।

                पिछली होली की ही बात ले लो। गाँव के कुछ युवक होली रखने के लिए चंदा माँगने आए। गोविन्द ने डाँट-डपट कर उन्हें गेट के बाहर खदेड़ दिया। ये दृश्‍य देखकर दद्दा की आँखों में आँसू आ गए थे। बिस्तर में पड़े-पड़े उन्होंने गोविन्द से कहा था-‘‘क्यों गोविन्द, सौ-पचास दे देते तो क्या बिगड़ जाता।‘‘

                ‘‘अरे दद्दा तुम नहीं जानते, साले रात भर पी के हु़ड़दंग मचाते, सोना हराम करते हैं नालायक‘‘-गोविन्द खीझते हुए बोला।

                दद्दा एक लंबी साँस लेकर चुप हो गए। अब इस घर के सारे सत्ता-सूत्र उनके हाथ से निकल चुके थे। चुपचाप बिस्तर पर पड़े ये सब देखने-सुनने के अलावा कोई चारा नहीं था।

                दद्दा के होते गाँव की होली के लिए कभी चंदा नहीं लिया गया। पूरा खर्च दद्दा स्वयं उठाते। धुरेड़ी के दिन दद्दा की हवेली में मृदंग और टिमकी की ताल पर सब गाँव वाले थिरकते। भाँग छानने का जिम्मा दद्दा का विष्वासपात्र भूरा नाई संभालता।

      ये सब आयोजन दद्दा के बेटों ने फिजूलखर्ची समझ कर बंद करवा दिए। गाँव के अनपढ़ और गँवार लोगों के बीच उठना-बैठना दद्दा के परिवार वालों की शान के खि़लाफ हो गया था। दद्दा की एक जुबान पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार गाँव वालों के मन में उनके परिवार के प्रति वो सम्मान नहीं था, जो दद्दा के प्रति था। कहाँ दद्दा की सरलता, सहजता और अपनेपन में रची-बसी बोली कि दद्दा डाँटें भी तो बुरी न लगे। वहीं उनके बेटों की मुस्कुराहट भी काँटा-सी चुभती थी गाँव वालों को। चुभे भी क्यों न जब मुस्कुराहट के पीछे खड़ा हो अपने बड़े होने का दर्प और भावनाहीन सपाट चेहरा।

गाँव वालों को वो घटना आज भी याद है, जैसे कल की ही बात हो। कलुआ की लड़की का नेह उसके पड़ोसी हीरामन के बेटे से हो गया था। गाँव में एक ही किराने की दुकान थी, हीरामन की। जब हीरामन खाना खाने घर जाता तो उसका बेटा दुकान सँभालता। इसी बीच सामान लेने पहुँच जाती कलुआ की लड़की। अरे सामान-वामान क्या लेती थी, वो तो हीरामन के लड़के से नैन-मटक्का करने जाती थी दुकान। धीरे-धीरे  ये बात पूरे गाँव में फैल गई। अब बताओ इश्‍क और मुश्‍क कभी छुपाए छुपते हैं भला। बात इतनी बढ़ गई कि दोनों परिवारों में सिर-फुटव्वल की नौबत आ गई। आखि़री कोशिश के रूप में बात दद्दा की अदालत में लाई गई।

दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद दद्दा बोले-‘‘देख कलुआ, लड़का-लड़की दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, फिर हम क्यों बीच में अड़ंगा लगाएं। इनके विवाह से गाँव की मर्यादा कम नहीं होगी।

पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। आशा  के विपरीत दद्दा ने फै़सला सुना दिया था। लेकिन दद्दा की बात तो पत्थर की लक़ीर थी। किसी की हिम्मत नहीं हुई दद्दा के निर्णय का विरोध करने की। दोनों का विवाह दद्दा के आशीर्वाद से सम्पन्न हुआ।

इतने पुराने ज़माने में यह एक क्रांतिकारी घटना थी। दद्दा के प्रगतिशील विचारों की चर्चा आस-पास के गाँवों में बहुत दिनों तक होती रही। अब वो अपनत्व और अधिकार-भावना गाँव से लुप्त हो चुकी थी, साथ ही आज लुप्त हो चुका था वो कद्दावर व्यक्तित्व, जिसे लक्ष्मणपुर गाँव के लोग दद्दा के नाम से जानते थे और उसको पूजते थे।

दद्दा की मृत्यु के पन्द्रह दिन पहले की बात है। दद्दा ने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया। तीनों दद्दा के पास बैठ गए।

दद्दा बुझते दिये सी काँपती आवाज़ में बोले-‘‘अब हमारे चलने का समय हो गया है। हमारी इच्छा है कि इस गाँव के लिए कुछ करके जाएँ। इस गाँव से हमें बहुत कुछ मिला है। हम आज जो कुछ भी हैं वो भगवान की कृपा और गाँव वालों की सद्भावना की वजह से हैं। हम चाहते हैं कि गाँव में स्कूल बनाने के लिए पीपल के बाजू वाली अपनी दो एकड़ जमीन ग्राम पंचायत को दान में दे दें।‘‘

तीनों भाई एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे।

थोड़ी देर बाद गोविन्द बोला-‘‘ दद्दा तुम चिन्ता मत करो, हम लोग आपस में बातचीत करके कोई फै़सला ले लेंगे।‘‘

दद्दा के कमरे से बाहर आ कर तीनों विचार-विमर्श करने लगे। छोटा भाई किशन बोला-‘‘बड़े भैया, वो पीपल वाली जमीन की कीमत जानते हो आज क्या है ?‘‘

मँझला भाई माधव बीच में बोल पड़ा-‘‘लाखों में है लाखों में।‘‘

‘‘इतनी कीमती जमीन को हम यूँ ही दान-दक्षिणा में नहीं दे सकते.... गाँव में स्कूल बनाने का ठेका हमारा नहीं है‘‘-गोविन्द ने अपना मत व्यक्त किया।

अंततः फ़ायदे-नुकसान के गुणा-भाग के बाद ज़मीन की क़ीमत के आगे दद्दा की भावना की क़ीमत हल्की पड़ गई। तीनों ने एकमत से स्कूल के लिए ज़मीन दान न करने का फै़सला ले लिया।

दद्दा की अंतिम यत्रा में पूरा लक्ष्मणपुर गाँव और आस-पास के लोग उमड़ पड़े। सबकी आँखों में आँसू थे, साथ ही दद्दा की मधुर स्मृतियाँ। कपाल-क्रिया के साथ ही अग्नि की तेज़ लपटों में दद्दा का शरीर भस्मीभूत हो गया और भस्मीभूत हो गई दद्दा की अंतिम इच्छा।

000 अरुण यादव
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टिप्पणियाँ:-

राज बोहरे:-
एक आदर्श ग्राम प्रधान की कहानी है ये जिसमे रोचकता आती है उनके बेटों की सक्रियता यानी दद्दा के फैसले के विरोध के बाद।

वागीश झा:-
प्रदीप ने अरुण की कहानी के सन्दर्भ में जीवनी और कहानी के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है। राजेंद्र जी ने इसे 'कहानी कम और जीवनी ज़्यादा' कह कर और पुख्ता किया।
अरुण की कहानी के सहारे सुधि साथी कुछ प्रकाश डालें तो हमारी भी समझ बढे।

अरुण यादव:-
शुक्रिया दोस्तो, आपने कीमती वक्त निकाल कर कहानी पढी और अपनी अर्थपूर्ण टिप्पणियाँ दीं। मेरी अटूट मान्यता है कि पाठक कभी गलत नहीं होते, अतः कहानी को डिफेन्ड नहीं करूंगा। दर असल जब कहानी का प्लाट दिमाग में आया तो मेरी कोशिश थी कि कहानी के माध्यम से गांव में प्रवेश कर चुकी उपभोक्तावादी संस्कृति औऱ बाजारवाद की क्रूरता से झिन्न-भिन्न होते मानवीय और पारिवारिक रिश्तों की त्रासदी की पडताल की जाय। ऐसा प्रतीत होता है कि कहानी अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में सफल नहीं हो सकी है।इसे में कहानी/कहानीकार की कमजोरी मानता हूँ। पाठकों का निर्णय सिरमाथे।

आलोक बाजपेयी:-
आपका प्रयास बहुत अच्छा है।आपने कहानी की मूल अंतर्वस्तु अच्छे से संप्रेषित की ।भाषा पर आपकी पकड़ है और शैली भी कहानी शिल्प के अनुरूप है।कहानी का अंत कुछ और प्रभाव पूर्ण हो सकता था।अगर इस पर और म्हणत करें और इसे विस्तारित कर सकें तो महत्त्वपूर्ण रचनाओ में शुमार हो सकती है।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
अरुण जी
कहानी अभी पढ़ी और लिखने को विवश हो गया।
आज जब कहानियों से गांव और किसान शनैः शनैः दूर हो रहे हैं, ऐसे में इस प्रकार की कहानियां लिखना बड़ी बात है।  दूसरी बात जब भाषा को दुर्बोध बनाना फैशन हो रहा है ऐसे में सरल और सीधी बात करना भी उल्लेखनीय है। अच्छी कहानी के लिए हार्दिक बधाइयां,  तथापि मैं जोड़ना चाहूंगा कि थोड़ा सा काम और किया जाता इस कहानी पर तो यह अधिक प्रभावी और मार्मिक होती। पुनश्च बधाइयाँ

संजना तिवारी:-
कहानी अच्छी है , विषय भी अच्छा है ।दद्दा के रूप में शहरी और ग्रामीण भावनाओं के यथार्थ को दिखाना अच्छा है । कहानी में थोडा सा और कसाव होता तो वो पढ़ने के बाद तक पाठक को झकझोर देता और पाठक इस स्मस्या पर देर तक सोचता हुआ कहानी से बंधा रहता ।

फ़रहत अली खान:-
बढ़िया कहानी है।
आजकल हर दूसरे या तीसरे बुज़ुर्ग की यही कहानी है। ज़माना बदल रहा है, भलाई को भला समझना और बुराई को बुरा जानना नई पीढ़ी पसंद नहीं करती। ज़ाहिरी तौर पर लगभग हर चीज़ दौलत से ख़रीदी जा रही है। सो नैतिकता को न मानने वाले किसी भी शख़्स की नज़र में बुज़ुर्गों की इज़्ज़त-ओ-क़द्रदानी जैसी किसी भी चीज़ के मुक़ाबले पैसे की ज़्यादा एहमियत होना स्वाभाविक ही है। ऐसे लोगों के बीच अपने निर्णय तभी तक लिए जा सकते हैं, जब तक सत्ता अपने हाथ में है।
महंगाई के इस दौर में दद्दा की उस आख़िरी ख़्वाहिश को उनके लड़कों ने अव्यवहारिक मानकर, अपने निर्णय को ख़ुद ही तार्किक ठहरा लिया होगा।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
बदलते परिवेश टूटते रिश्तों रूपये पैसा की प्रधानता वाले आज के समाज में सद्भावनाओं का पतन इंसान के खुदपरस्त होनेकी विडम्बना कितनी घातक है यह कहानी बताती है । अच्छी कहानी लेखक को  बधाई  अभिनन्दन ।
चंद्रशेखर बिरथरे

नयना (आरती) :-
उतकृष्ठ कहानी ,मानवीय रिश्तो के सिवन को उधडते बच्चों ने दद्दा के अंतिम ईच्छा को सिरे से नकार देना ,नयी पीढी का पैसो के प्रति मोह सब कुछ कहानी में प्रवाह के साथ बहता रहा

वसुंधरा काशीकर:-
लेखन शैली पकड़ के रखनेवाली है। पुरा चित्र आँखो के सामने खड़ा हो गया। हमारी पीढ़ी ने दद्दा जैसे किरदार देखे है सो relate कर सकते है। हमारे बच्चे तो ये समझ ही नहीं पायेंगे। feeling nostalgic...

अज्ञात:-
उपभोक्तावादी संस्कृति में दद्दा जैसी सोच समाप्त होती जा रही है
यह स्वार्थपरता और लोभ की संस्कृति है
पुराने सभी मानवीय मूल्य नस्ट होते जा रहे है।इन मूल्यों को बचाने के लिये साहित्यकारों को आगे आना होगा।

मीना शाह :-
अच्छी कहानी...हर बुजुर्ग इसी तरह की किसी न किसी समस्या से जूझ रहा है ...हमारे यहाँ खुद के घर ही ओल्डएज होम से कम नहीं रह गए हैं

रूपा सिंह :-
मार्मिक कहानी।पूंजीवाद का कुप्रभाव रिश्तों मूल्यों सभी जगह बेआवाज पसरा जा रहा।पूर्व पश्चिम में बदल रहा।पुरानी पीढ़ी ख़त्म और नई नस्ल  दिशाहीनता से ग्रसित।अंधकार युग।

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