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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 जुलाई, 2015

कहानी : निधि जैन

गड़ा धन""चल बे उठ.... बहुत सो लिया... सर पर सूरज चढ़ आया पर तेरी नींद है कि पूरी होने का नाम ही न लेती।" राजू का बाप उसे झिंझोड़ते हुए बोला। "अरे सोने तो दो... बेचारा कितना थका हारा आता है। खड़े खड़े पैर दुखने लगते और करता भी किसके लिए है...घर के लिए ही न कुछ देर और सो लेने दो..""अरे करता है तो कौन सा एहसान करता है...खुद भी रोटी तोड़ता है चार टाइम", फिर से लड़के को लतियाता है,"उठ बे हरामी ...देर हो जायेगी तो सेठ अलग मारेगा..."लात घलने से और चें चें पें पें से नींद तो खुल ही गई थी। आँखे  मलता दारूबाज बाप को घूरता गुसलखाने की ओर जाने लगा।"एssss हरामी को देखो तो कैसे आँखें निकाल रहा जैसे काट के खा जाएगा मुझे..""अरे क्यू सुबह सुबह जली कटी बक रहे हो""अच्छा मैं बक रहा हूँ और जो तेरा लाडेसर घूर रहा मुझे वो..."और एक लात राजू की माँ को भी मिल गई।    लड़का जल्दी जल्दी इस नर्क से निकल जाने की फिराक में है और बाप सबको काम पर लगाकर बोतल से मुंह धोने की फिराक में।    लड़का जानता है इस नर्क से निकलकर भी वो नर्क से बाहर नही क्योकि बाहर एक और नर्क उसका रास्ता देख रहा है,दुकान पर छोटी छोटी गलती पर सेठ की गालियाँ और कभी कभी मार भी पड़ती थी बेचारे 12 साल के राजू को।    यहाँ लक्ष्मी घर का सारा काम निबटा कर काम पर चली गई।घर का खर्च चलाने को दूसरों के घरों में झाड़ू बर्तन करती थी।"लक्ष्मी तू उस पीर बाबा की मजार पर गई थी क्या धागा बाँधने..." मालकिन के घर कपडे धोने आई एक और काम वाली माला पूछने लगी।    माला अधेड़ उम्र की महिला है और लक्ष्मी के दुखों से भली भाँति परिचित भी।इसलिए कुछ न कुछ करके उसकी मदद करने को तैयार रहती।   "हाँ गई थी... उसे लेकर..नशे में धुत्त रहता दिन रात..बड़ी मुश्किल से साथ चलने को राजी हुआ.." लक्ष्मी ने जवाब दिया "पर होगा क्या इस सब से....इतने साल तो गए... इस बाबा की दरगाह... उस बाबा की मजार....ये मंदिर...वो बाबा के दर्शन... ये पूजा... चढ़ावा... सब तो करके देख लिया पर न ही कोख फलती है और न ही घर गृहस्थी पनपती है। बस आस के सहारे दिन कट रहे हैं।" कहते कहते लक्ष्मी रूआंसी हो गई।  माला ढांढस बंधाती बोली,"सब कर्मों के फल हैं री और जो भोगना बदा है सो तो भोगना ही पड़ेगा।""हम्म.."बोलते हुए लक्ष्मी अपने सूखे आंसुओं को पीने की कोशिश करने लगी।   "सुन एक बाबा और है,उसको देवता आते हैं.. सब बताता है और उसी के अनुसार पूजा अनुष्ठान करने से बिगड़े काम बन जाते हैं।"      "अच्छा तुझे कैसे पता?"     "कल ही मेरी रिश्ते की मौसी बता रही थी कि किस तरह उसकी लड़की की ननद की गोद हरी हो गई और बच्चे के आने से घर में खुशहाली भी छा गई। मुझे तभी तेरा ख़याल आया और उस बाबा का पता ठिकाना पूछ कर ले आई। अब तू बोल कब चलना है?"   "उससे पूछकर बताऊँगी.... पता नही किस दिन होश में रहेगा.."  "हाँ ठीक है,वो सिर्फ इतवार बुधवार को ही बताता है और कल बुध है,अगर तैयार हो जाए तो सीधे मेरे घर आ जाना सुबह ही,फिर हम साथ चलेंगे...मुझे भी अपनी लड़की की शादी के बारे में पूछना है.."     लक्ष्मी ने हाँ भरी और दोनों काम निबटा कर अपने अपने रास्ते हो लीं।    लक्ष्मी माला की बात सुनकर खुश थी कि अगर सब कुछ सही रहा तो जल्दी ही हमारे घर की भी मनहूसियत दूर हो जायेगी। पर कही राजू का बाप न सुधरा तो...आने वाली संतान के साथ भी उसने यही किया तो..जैसे सवाल ने उस्की खुशी को ग्रहण लगाने की कोशिश की पर उसने खुद को संभाल लिया।      सामने आम का ठेला देख राजू की याद आ गई। राजू के बाप को भी तो आम का रस बहुत पसंद है। सुबह सुबह बेचारा राजू उदास होकर घर से निकला था,आमरस से रोटी खायेगा तो खुश हो जायेगा और राजू के बाप को भी बाबा के पास जाने को मना लूँगी,मन में ही सारे ताने बाने बुन, वो रुकी और एक आम लेकर जल्दी जल्दी घर की ओर चल दी।      घर पहुंचकर दोनों को खाना खिलाकर सारे कामों से फारिग हो राजू के बाप से बात करने लगी। दारु का नशा कम था शायद या आमरस का नशा हो आया था,वो दूसरे ही दिन जाने को मान गया।     दूसरे दिन राजू,रमेश (राजू का बाप) और लक्ष्मी सुबह ही माला के घर पहुंच गए और वहां से माला को साथ लेकर बाबा के ठिकाने पर।       बाबा के दरवाजे पर कोई आठ दस लोग पहले से ही अपने अपने दुखों को सुखों में बदलवाने के लिए बाहर ही बैठे थे। एक एक करके सबको अंदर बुलाया जाता। वो लोग भी जाकर बाबा के घर के बाहर वाले कमरे में उन लोगों के साथ बैठ गए।     सभी लोग अपनी अपनी परेशानी में खोये थे। यहाँ माला लक्ष्मी को बीच बीच में बताती जाती कि बाबा से कैसा व्यवहार करना है और समझाती इतनी जोर से कि नशेड़ी रमेश के कानों में भी आवाज पहुँच जाती। एक दो बार तो रमेश को क्रोध आया पर लक्ष्मी ने हाथ पकड़ कर बैठाये रखा।      करीब दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद उनकी बारी आई,तब तक पाँच छः दुखी लोग और आ चुके थे। खैर,अपनी बारी आने की ख़ुशी लक्ष्मी के चेहरे पर साफ़ झलक रही थी यूँ लग रहा था मानो यहाँ से वो बच्चा लेकर और घर का दलिद्दर यहीं छोड़ कर जायेगी।       चारों अंदर गए। बाबा पूर्ण आडम्बरयुक्त थे।चारों ने बाबा को प्रणाम बोला।बाबा ने उनकी समस्या सुनी। फिर बाबा ने भगवान् को उनके नाम का प्रसाद चढ़ाया और थोड़ी देर ध्यान लगाकर बैठ गए। कुछ देर बाद बाबा ने जब आँखें खोली तो आँखें आकार में पहले से काफी बड़ी थीं। अब लक्ष्मी को विशवास हो गया था कि उसकी समस्या का अन्त हो ही जाएगा।      बाबा,"कोई है जिसकी काली छाया तुम लोगों की गृहस्थी पर पड़ रही है वो ही तुम्हारे बच्चे न होने का कारण है और जहाँ तुम रहते हो वहां गड़ा धन भी है चाहो तो उसे निकलवा कर रातो रात सेठ बन सकते हो..."   दोनों की आँखें चमक उठीं उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा। फिर रमेश बाबा से बोला,"हम लोग खुद ही खुदाई करके धन निकाल लेंगे और आपको चढ़ावा भी चढ़ा देंगे आप तो जगह बता दो बस..."  बाबा ने जोर का ठहाका मारा और बोले,"ये सब इतना आसान नही..""तो फिर..क्या करना होगा.."रमेश अधीर हो उठा"कर सकोगे...""आप बोलिये तो..इतने दुःख सहे हैं..अब तो थोड़े से सुख के बदले भी कुछ भी कर जाऊँगा..""बलि लगेगी..""बस इत्ती सी बात..मैं बकरे की व्यवस्था कर लूँगा..""बकरे की नही..""तो फिर..""नर बलि.."रमेश को काटो तो खून नही। लक्ष्मी और राजू भी सहम गये।"मतलब इंसान की हत्या.."रमेश बोला।"तो क्या गड़ा धन और औलाद पाना मजाक लग रहा था तुम लोगों को..जाओ तुम लोगों से नही हो पायेगा.."बाबा लगभग चिल्ला उठे।बीच में ही माला बोल उठी,"नही महाराज,नाराज मत हो,मैं समझाती हूँ दोनों को.."और लक्ष्मी को अलग ले जाकर बोलने लगी,"एक जान की ही तो बात है सोच उसके बाद घर में खुशियां ही खुशियां होंगी बच्चा पैसा सब..दे दे बलि.."लक्ष्मी तो जैसे होश ही कहो बैठी थी।  तब तक रमेश भी उन दोनों के पास आ गया और माला की बात बीच में ही काटते हुए बोला,"किसकी बलि दे दें.." "जिसका कोई नही उसी की..अपना खून अपना ही होता है..पराये और अपने का फर्क जानो.."माला बोली।ये बात सुनकर रमेश का जमा हुआ खून अचानक खौल उठा और माला पर लगभग झपटते हुए बोला,"किसकी बात कर रही है बुढ़िया...जबान संभाल.. वो मेरा बेटा है...दो साल का था जब वो मुझे बिलखते हुए रेलवे स्टेशन पर मिला था।कलेजे का टुकड़ा है वो मेरे।तेरी जुबान क्यू नही कट गई ऐसा बोलते..तेरी आँखें क्यू न फूट गईं उसकी तरफ ऐसी नजरों से देखते.." राजू कोने में खड़ा सब सुनता रहा और अवाक् सा देखता रहा।   बाबा सब तमाशा देख समझ चुके थे कि ये लोग जाल में नही फँसेंगे सो शिष्य से कहकर चारों को घर से बाहर निकलवा दिया।  राजू सन्न था।बाहर निकलकर उसके मुँह से बस चार शब्द निकले,"बाबा,,,मैं तेरा गड़ा धन बनूँगा।"  रमेश ने राजू को छाती से लगा लिया और अपनी हताशा और निराशा का हमेशा शिकार बने, राजू से माफ़ी मांगी और कसम ली कि इसके बाद वो कभी शराब नही पियेगा।

000 निधि जैन
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टिप्पणियाँ:-

आर्ची:-
सामान्य तौर पर ठीक कही जा सकती है पर विशेष रूप से कहानी कहने जैसा कुछ नहीं लगा रचनात्मक पक्ष जरा कमजोर लगा आरंभ में केवल संवाद लिख दिए गए हैं किसके द्वारा बोले जा रहे हैं इस बारे में अस्पष्टता खलती है बाद में भी माला और लक्ष्मी के पात्रों को बहुत स्पष्ट नहीं किया गया है.. एक शराबी व्यक्ति का ममत्व जाग उठने का कारण भी नहीं बताया गया

नयना (आरती) :-
संवाद शैली मे लिखी कहानी रिश्तों के बुनावट को उतना स्पष्ट नही कर पाई.कथानक बहूत अच्छा है मगर कफ़ी हद तक दिल की गहराई नही नाप पाया.
रमेश का अचानक राजू के प्रति उपजा प्यार महज एक अपनत्व ना होते हुए कही ना कही बरसो साथ रहने पर उपजा  वात्सल्य है,यह थोडा विस्तृत होता तो कहानी की आत्मा को छू जाता.
ढोंगी बाबाओ पर इस कथानक पर अनेको कहानियाँ पढी है.प्रयत्न उत्तम है.जारी रखिये लिखना.
रचनाकार को  बधाई  वैसे मे जान गयी हूँ कहानी किसकी हो सकती है.

फ़रहत अली खान:-
ठीक-ठाक कहानी है, अगर अंत इतना नाटकीय न होता तो कहानी और भी अच्छी लगती। संवाद काफ़ी हद तक अच्छे लगे। प्रस्तुतीकरण ज़रा कमज़ोर लगा। ऐसा लगा कि वाक्य एक में एक घुसे जा रहे हैं; जैसे किसी माचिस की डिब्बी में तीलियाँ भरी होती हैं। कोई भी पोस्ट करते समय जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए; एक बार पढ़ कर वर्तनी, प्रस्तुतीकरण आदि की कमियाँ जाँच लेनी चाहियें।

ब्रजेश कानूनगो:-
समाज के निम्नतम वर्ग के परिवेश को केंद्र में रखकर इन दिनों बहुत कम लिखा जा रहा है।रचनाकार का विषय यह वर्ग बना।बधाई।
जब कमलेश्वर ने सारिका के माध्यम से समांतर कहानी आंदोलन चलाया था तब अनेक ऐसे ही वर्गों पर प्रभावी और अच्छी कहानिया लिखी और पढ़ी गेन थीं। मगर प्रस्तुत कहानी का ट्रीटमेंट उस स्टार तक पहुँच नहीं पाया।खेद है की यदि रचनाकार उसका 50% भी काम कर पाते तो यह उल्लेखनीय हो जाती।

किसलय पांचोली:-
निधिजी,
प्रथम प्रयास के रूप में कहानी सराहनीय है। लेकिन
बिजूका के लिए सुधार की अनेक संभावनाओं से भरी हुई ।
संवाद, नरेशन, ट्रीटमेंट, मनस्थिति का द्वन्द इनमें से किसी एक पर भी माकूल/ अपेक्षित कलम चली होती तो कहानी कंहीं और धनवान होती। कहानी का गढ़ा धन गढ़ा ही न रहता।
अगली कहानी के लिये शुभकामनाएं व्हाट्सऐपित हैं।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
कहानी की बनावट और बुनावट अच्छी है। शीर्षक भी लेखक की समझ और दृष्टि का परिचायक है।
कहानी, मुझे लगता है कि कुछ और विस्तार की मांग करती है। कुछ और कसावट भी आवश्यक थी।
बहरहाल हर दिन चिंतन - अनुचिंतन के लिए सामग्री बिजूका के माध्यम से उपलब्ध होती है। लेखक का शुक्रिया। सत्यनारायण जी का धन्यवाद। बिजूका आभार।
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

अरुण यादव:-
मित्रतापूर्वक यदि सीधी बात कहूं तो मुझे कहानी अखबारों रिपोर्टिंग जैसी सपाट लगी। राजू के पिता के चरित्र-चित्रण में भी दोष है। किन वजहों से राजू के पिता का हृदय परिवर्तन हुआ, कहानी में उल्लेख नहीं है। बहरहाल यदि यह लेखक की पहली कहानी है तो यह बहुत स्वाभाविक माना जाएगा।

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