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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 मई, 2015

प्रदीप मिश्र की कविताएँ

प्रदीप मिश्र (१९७०, गोरखपुर) वैज्ञानिक हैं.
‘अन्तरिक्ष नगर’ नाम से उनका एक विज्ञान- उपन्यास भी प्रकाशित है.
बतौर कवि के रूप में भी पहचाने जाते हैं. ‘उम्मीद’ उनका दूसरा कविता संग्रह है जो साहित्य भंडार, इलाहाबाद से इस वर्ष प्रकाशित हुआ है. सोच और संवेदना के स्तर पर समाज और व्यवस्था को मानवीय बनाने की जिम्मेदारी  का निर्वहन इन कविताओं में बखूबी दिखता है.

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॥ एक जनवरी की आधी रात को ॥

एक ने
जूठन फेंकने से पहले
केक के बचे हुए टुकड़े को
सम्भालकर रख लिया किनारे

दूसरा जो दारू के गिलास धो रहा था
खगांल का पहला पानी अलग बोतल में
इकट्ठा कर रहा था

तीसरे ने
नववर्ष की पार्टी की तैयारी करते समय
कुछ मोमबत्तिायाँ और पटाख़े
अपने ज़ेब के हवाले कर लिए थे

तीनों ने एक जनवरी की आधी रात को

पटाख़े इस तरह फोड़ें
जैसे लोगों ने कल जो मनाया
वह झूठ था
आज है असली नववर्ष

दारू के धोवन से भरी बोतलों का
ढक्कन यूँ  खोला
जैसे शेम्पेन की बोतलों के ओपेनर
उनकी ज़ेबों में ही रहते हैं

जूठे केक के टुकड़े खाते हुए
एक दूसरे को दी
नववर्ष की शुभकामनाएँ
पीढिय़ों से वे सारे त्यौहार
इसी तरह मनाते आ रहे हैं
कलैण्डर और पंचांग की तारीख़ों को
चुनौती देते हुए.

     ॥  दौड़  ॥

एक समय था जब
खुद से पीछे छूट जाने के भय से
दौड़ते रहते थे हम
और जब मिलते थे खुद से
खिल उठते थे
चाँदनी रात में चाँद की तरह
अंतस में 
झरने लगता था मधु

अब आगे निकल गए
दूसरों के पीछे दौड़ते रहते हैं

इस तरह खुद से इतना दूर
निकल जाते हैं कि
जीवनभर हाँफते रहते हैं
और अमावस की स्याही
टपकती रहती है
अंतस की झील में.

॥  मुझे शब्द चाहिए  ॥

हँसना चाहता हूँ
इतनी जोर की हँसी चाहिए
जिसकी बाढ़ में बह जाए
मन की सारी कुण्ठाएं

रोना चाहता हूँ
इतनी करुणा चाहिए कि
उसकी नमी से
खेत में बदल जाए सारा मरूस्थल

चिल्लाना चाहता हूँ
इतनी तीव्रता चाहिए जिससे
सामने खड़ी चट्टान में
पड़ जाए दरार

बात करना चाहता हूँ
ऐसे शब्द चाहिए
जो बहें हमारी रगों में
जैसे बहती रहती है नदी
जो भीनें हमारे फेफड़ों में
जैसे भीनती रहती है वायु

मुझे शब्द चाहिए
नदी और वायु जैसे शब्द.

�� समालोचन से साभार
��प्रस्तुति मनीषा जैन
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टिप्पणियां:-

प्रज्ञा:-
प्रदीप जी की तीनों कवितायें समकालीन यथार्थ की जटिलता को व्यक्त में सक्षम हैं। एक ओर वर्गों के संघर्ष में नए साल का जश्न दूसरी दौड़ जो भूमण्डलीकरण के बाद न जाने कितनी दौड़ों को जीवित करती है। जितना लम्बा डग उतना बौना होता आदमी। और तीसरी कविता सार्थक शब्द की मांग को बहुत गहराई से रेखांकित करती है। शब्द जब जी लिये जाते हैं तब अमर होते हैं और ये कविता उन्हें सलीके से जीने की मांग करती है। मानवीय होकर जीना।
प्रदीप भाई को बधाई। एम ए फाइनल की इंदौर यात्रा 1993 में उनसे भेंट हुई थी। बाद में पत्र संवाद और हाल के पुस्तक मेले में भेंट और आधार के कार्यक्रम में उनका वक्तव्य और संचालन। एक संजीदा कवि एक ज़िंदादिल इंसान। आशंकाओं के समय में संभावनाओं से भरे कवि।

ब्रजेश कानूनगो:-
तीनों कवितायेँ पूर्व में पढ़ी हुईं हैं।प्रदीप भाई से इनके पाठ को भी सुना है।प्रदीप मिश्र हमारे समय क दृष्टि संपन्न े समर्थ कवियों में से एक हैं।स्वयं अच्छे समालोचक होने  से कविता की दिशा की गहरी समझ रखते हैं।प्रस्तुत कवितायेँ अपने समय  पर सार्थक काव्यात्मक टिप्पणियाँ हैं।बधाई और शुभकामनाएं।

किसलय पांचोली:-
तीनों कविताएँ समय के खूबसूरत काव्य बिम्ब हैं। जो हमें सोचने को मजबूर करते हैं कि हमारी तथाकथिक विकास की दौड़   असमानता की खाई को नहीं पाट पाई है और कवि के मन में बदलने की छटपटाहट बरकरार है।

अर्जन राठौर:
पहली कविता एक जनवरी की रात को बेहद सशक्त कविता हे इसी तरह दूसरी कविता अकेले होते आदमी का दर्द प्रस्तुत करती हे तीनो कविताये अच्छी हे

अनुप्रिया आयुष्मान:-
सभी कवितायेँ बहुत ही अच्छी लगी मुझे।और सबसे अच्छा  "दौड़ "कविता की अंतिम लाइन  है जो मुझे बेहद पसंद आई।
एक जनवरी की आधी रात को। इस कविता मेंएक  यथार्थ है।मानवीय संवेदनाओ का सुन्दर रूप यहाँ प्रस्तुत है । और प्रज्ञा जी बातों से मैं सहमत हूँ।

अलकनंदा साने:-
प्रदीप मिश्र की कवितायेँ पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है . बिलकुल आसपास की घटनाओं को प्रतिबिंबित करना उनकी खासियत है ... ""स्कूटी पर सवार लड़कियां" जैसे विषय उनकी कविताओं के  रहे  हैं.अत्यंत गंभीरता से सोचनेवाले इस युवा कवि को सुनना भी एक अनुभव होता है ....हमेशा की तरह अच्छी कवितायेँ ....धन्यवाद मनीषा जी

नंदकिशोर बर्वे :-
तीनों कविताओं में मानवीय संवेदना शिद्दत से भरी पड़ी है। लेकिन तीनों के प्रतीक परस्पर कितने अलग। यह कवि की दृष्टि संपन्नता को इंगित करती है। कवि और प्रस्तुत कर्ता दोनों बधाई के पात्र हैं।

कविता वर्मा:
प्रदीप मिश्र जी की कविताऐं मानवीय संवेदनाओं को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करती हैं ।आभार मनीषा जी

फ़रहत अली खान:-
सरल-सहज भाषा में कही गयी तीनों कविताएँ प्रभावित करती हैं।
पहली कविता में हालाँकि मुख्य पात्र वो आदमी है जो नए साल की पार्टी के बाद जूठन आदि की सफाई करता है लेकिन दूसरी ओर ये कविता कृत्रिम और भोगविलासिता-पूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले लोगों पर भी एक तरह से तंज़ करती है।
दूसरी कविता भी कुछ कुछ यही बात बयाँ करती है कि दूसरों से आगे निकलने की होड़ में इंसान ख़ुद से कितना दूर होता चला जाता है। बक़ौल जिगर मुरादाबादी साहब(1890-1960):
"नहीं जाती, कहाँ तक फ़िक्र-ए-इंसानी नहीं जाती...
मगर अपनी तबीयत आप पहचानी नहीं जाती..."
(फ़िक्र-ए-इंसानी = इंसानी सोच; तबीयत = स्वभाव, आप = ख़ुद)

तीसरी कविता भी बेहद अच्छी लगी।
कवि की साफ़गोई पसंद आई।

नयना (आरती) :-
संवेदनाओं से भरपुर,मन से लेकर मस्तिष्क तक छुती कविताऎ.

" मुझे  भी शब्द चाहिए "

बहूत कुछ कहने के लिये
अपने मन का,की वे
जब कागज पर उतरे
हिल जाए सारी संवेदनाए
और बहे झरने की तरह

कीर्ति राणा:
"एक जनवरी...." उस वर्ग का प्रतिबिंब जिसका नया दिन, नया साल उतरन और जूठन से शानदार हो जाता है। 
"शब्द" झकझोर देते हैं संवेदना को। 
सभी कविताएं उत्तम।

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