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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 फ़रवरी, 2015

कविताएं स्वरंगी साने जी की, टिप्पणी प्रमोद कुमार तिवारी जी की

1. प्याज़

बहुत सारा
प्याज़ काटने बैठ जाती थी माँ।
कहती थी मसाला भूनना है।

दीदी को भी बड़ा प्यारा लगता
प्याज़ काटना।

तब समझ नहीं पाती थी
इतना अच्छा क्या है
प्याज़ काटने में।

आज पूछती है बेटी
क्या हुआ?
और वो कह देती है
कुछ नहीं
प्याज़ काट रही हूँ।
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  2. कछुआ

बचपन में कछुए को देखती
तो सोचती थी
क्या देखता होगा
इस तरह हाथ-पैर बाहर निकाल कर
खुले आकाश को
या उस दौड़ को
जिसमें जीता था
कभी उसका पुरखा।

समय के साथ जानने लगी
खतरा न हो तो ही
निकलता है कछुआ
 खोल से बाहर।

फिर वो भी हो गई कछुआ
पड़ी रही एक कोने में
कि किसी की निगाह न जाए उस पर
आने-जाने वाले
उसे भी मान लें एक पत्थर।

एक दिन
जाने क्यों
उसे लगा
वो पूरी तरह सुरक्षित है
निकली वो बाहर
बहुत दिनों बाद देखा आसमान
जी भर के ली साँस।

तभी उसे सुनाई देने लगी
खतरों की आहटें
पर
जीने की लालसा में
वो भूल गयी
मरने का भय।

उसे हुआ था पहली बार अहसास
कछुआ नहीं
लड़की है वो
और तभी वो समझ गई यह भी
कि सुरक्षित नहीं है वो
फिर सिमट गई अपने खोल में ।
..................

3. प्रारब्ध


करवट लेटी
रोती आँखें

एक आँसू बहा
और सीधे गाल पर जा लुढ़का।
दूसरे आँसू को
एक आँख से निकल
दूसरी आँख तक जाना पड़ा
तब मिला गाल का सहारा।

एक को
दूसरे से कुछ और अधिक
भुगतनी पड़ी पीड़ा।

आँखें समान थीं
आँसू भी
फिर क्यों मिला फ़ासला
कम-ज़्यादा।
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3. प्रारब्ध


काली ख़ामोश रात
केवल घड़ी की टिकटिक।

सन्नाटे को तोड़ता झींगुर
सड़क से गुज़रती किसी गाड़ी का हॉर्न
या
रेल की धड़धड़ाहट
और पंखे की आवाज़
 सब नींद में
बस दो आँखें टापती हुई
छत पर नज़र आती छिपकली।

लेकिन
ये इतना ख़ौफ़नाक नहीं।
ख़तरा तो तब मंडराता है
जब पढ़ने लगती है
औरत कोई किताब।

किताब के शब्दों में
वो भूल जाती है
अपना रिश्ता
आसपास की दुनिया से।

अँधेरा / अकेलापन
घुटन/ चुप्पी से
उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

सतर्क तो वो तब होती है
जब किसी के साथ बाँटना चाहती है कविता ।


5.  कथा

 कथा है गंगा जब उतरी धरती पर
जटा में ले लिया धरती ने
भगीरथ ने दिखाया था उसे
रास्ता कि कैसे बहे वो
गंगा उसी तरह बहती है
जैसे कहा भगीरथ ने

गंगा ने मानी शिव की बात
भगीरथ की बात
पवित्र नदी है गंगा।
वो नदी नहीं थी
फिर भी सूखती जा रही थी
भीतर ही भीतर
एक दिन आ गया
पूरा का पूरा समुद्र उससे मिलने
पत्थर होती जा रही नदी को मिला
पानी इतना ज़्यादा
कि उसके पाट भी छोटे पड़ गए
उसने विस्तारित किए अपने पाट

बही चहुँ दिशा
हो गई हरी-हरी

पर समुद्र अब शंकर में बदल गया था
कहने लगा इस तरह मत बहो
तो वो समा गई उसकी जटा में
हो गई आज्ञाकारी
तो समुद्र बदल गया भगीरथ में
कहा
बहो मैं बताता हूँ वैसे

नदी हँस दी
दु:ख की नदी
नदी रो पड़ी
सुख की नदी।

समुद्र को लगा
उसने नदी को
बहना सिखा दिया
पर नदी को लगता है अब
समुद्र भी उसका नहीं रहा ।

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6.कागज़

उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास
कहने को बहुत कुछ था।
उन कोरे नए कागज़ों के पास
भीनी महक के अलावा कुछ न था।

पीले पड़ चुके कागज़ों की
स्याही भी धुँधला गई थी
कोनों से होने लगे थे रेशा-रेशा
पर कितने अनकहे अनुभवों-अनुभूतियों को लिये थे वे ।

हालाँकि
नये कागज़ चिकने भी थे
और उन पर लिखा जाना था बहुत कुछ। शायद और भी बेहतर

फिर भी भिगो गये थे आँखों को
बड़े अपने से लग रहे थे पुराने हो गए पन्ने
जो फड़फड़ा रहे थे मन में।


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7.  हँसी

उससे पूछा जाता है
‘कैसी हो आजकल’
वो ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पाती।
सोच में पड़ जाती है
लगता है सच कह दे
फिर सोचती है
इस प्रश्न का कोई मानक उत्तर ही दे दे।

वो सच बताना चाहती है
कि तभी
दूसरा सवाल दाग़ दिया जाता है
फिर तीसरा, चौथा
उसके पास
किसी सवाल का कोई तयशुदा जवाब नहीं होता
वो हँस देती है।

पूछते हैं उससे -इसमें हँसने की क्या बात!

हाँ
हँसने वाली
कोई बात नहीं होती
दरअसल वो रोना चाहती है।

हालाँकि
जब-जब
वो रोना चाहती है
हँस देती है
और सब कहते हैं
वो हँसती बहुत है।
................

टिप्पणी                                                                                            

जो कुछ समझ में आया लिख दिया है।
इन दिनों बिजूका पर 'स्‍त्री संवेदना' और उससे जुड़ी रचनाओं की काफी चर्चा हो रही है। प्रस्‍तुत कविताएं उस चर्चा को आगे बढ़ाने का काम करेंगी। रचनाकार (जो शायद कवयित्री हैं, वैसे गलत होकर मुझे अच्‍छा लगेगा।) को हृदय से बधाई। बहुत अच्‍छी कविताएं। इन्‍हें पढ़ते समय भीतर का पाठक वाह-वाह करता रहा और टिप्‍पणीकार को धक्‍का देकर किनारे कर दिया।
सबसे अच्‍छी बात रचनाकार की यह है कि उसे पाठकों की समझ पर पर्याप्‍त भरोसा है और अपनी तरफ से समझाने के लिए उसने हाथ-पैर नहीं मारे हैं। इसी मितभाषिता के कारण कविताओं में सांद्र तीव्रता आयी है। प्रतीकों का अच्‍छा इस्‍तेमाल किया गया है और कुछ नये बिंब भी बने हैं।
पहली कविता 'प्‍याज' बहुत ही खामोशी से प्‍याज के बहाने रो के मन हल्‍का कर लेने की कहानी कहती है। साथ ही संकेत भी दे देती है कि कई पीढि़यां गुजर जाने के बावजूद हालात में कोई अंतर नहीं आया है।
इसी प्रकार 'कछुआ' कविता बहुत बारीक ढंग से सुरक्षा और बंधन के द्वैत को उठाती है। ठीक वेैसे ही जैसे पिंजड़ा भी सुरक्षा देता है पर भारी कीमत भी वसूलता है। कछुआ के प्रतीक का बेहतरीन इस्‍तेमाल किया गया है। कविता की आखिरी तीन पंक्तियों (और तभी वो समझ गई यह भी/ कि सुरक्षित नहीं है वो/ फिर सिमट गई अपने खोल में।) पर मेरी व्‍यक्तिगत राय यह है कि इन्‍हें न लिखा जाता तो कविता ज्‍यादा बड़ी होती। क्‍योंकि इससे पहले वह जीने की लालसा में मरने का भ्‍ाय भूल चुकी थी और उसे यह अहसास भी हो चुका था कि वह कछुआ नहीं लड़की है। इसके बाद भी खोल में लौटना पहले की पंक्तियों का विरोध है यानी वह भय को भूली नहीं।
प्रारब्‍ध कविता में बिंब नया है परंतु गाल से मिलने के लिए पीड़ा सहने वाली बात बहुत समझ नहीं आती। खास तौर से गाल से क्‍या आशय है स्‍पष्‍ट नहीं हुआ।
खतरनाक एक अच्‍छी कविता लगी परंतु इसके लिए भी मेरी व्‍यक्तिगत राय यह है कि यह कविता (जब पढ़ने लगती है/औरत कोई किताब।) के साथ खत्‍म होती तो ज्‍यादा दूर तक जाती,ज्‍यादा बड़ी होती। परंतु इसका अंत कविता से होता है, किताब सिर्फ कविता नहीं है, वह विचार, भाव, ज्ञान, सूचना आदि कुछ भी हो सकती है। यहां आकर 'खतरनाक' का और 'कविता' का दायरा छोटा हो जाता है।
'कथा'कविता में थोड़ा उलझाव है। यह टुकड़ों में अच्‍छी कविता है, अंत भी बेहतर है परंतु मिथक को संभालना मुश्किल काम है इसलिए इनका उपयोग करते समय अतिरिक्‍त सचेतनता जरूरी होती है। शिव की जटा ठीक है पर धरती की जटा क्‍या है। मेरे खयाल से इसे दुबारा लिखना चाहिए और जरूरत के हिसाब से थोड़ा बड़ा या छोटा करना चाहिए।
कागज कविता में नास्‍ट्रेल्जिया (सकारात्‍मक अर्थों में) और वैयक्तिकता है।
हँसी निश्चित रूप से एक बेहतरीन कविता है। शायद इन सातो कविताओं में मैं इसे पहला स्‍थान दूं। 'मानक उत्‍तर','तयशुदा जवाब' जैसे पद बहुत व्‍यंजित होते हैं। और आखिर की पंक्तियां तो बेजोड़ हैं- (जब-जब/ वो रोना चाहती है/ हँस देती है/ और सब कहते हैं/वो हँसती बहुत है।) इन पंक्तियों में विडंबना अपने पूरे वितान के साथ मौजूद है। एक श्रेष्‍ठ रचना या फिल्‍म के लिए जरूरी जिस 'तनाव' की बात की जाती है वह यहां मौजूद है। पुन: बधाई।
०००

कवि स्वरांगी साने हैं...
और टिप्पणी प्रमोद कुमार तिवारी की है....
09.01.2015

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