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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 फ़रवरी, 2011

लाइफ इज़ ब्यूटीफुल ( La vita e bella )

अमय कांत






रोबर्टो बेनिनी की फिल्म ‘लाइफ इज़ ब्यूटीफुल (1997) ’ एक इतालवी फिल्म है जो जीवन के कड़वे यथार्थों से संघर्ष की कहानी है . यह जीवन से लबरेज़ एक ऐसे आदमी की कहानी है , जो हमेशा ज़िन्दगी के सकारात्मक पक्ष को देखता है.

फिल्म की कहानी द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है जो एक यहूदी इतालियन व्यक्ति और उसके परिवार के इर्द -गिर्द घूमती है . फिल्म के पहले भाग में एक निहायती फक्कड़ और खुशमिजाज़ आदमी , ग्विडो इटली के अरेज़्जो शहर में आता है और बुक स्टोर खोलना चाहता है . अस्थायी तौर पर वह एक रेस्टोरेंट में काम करने लगता है . शहर में उसकी मुलाकात बड़े ही मज़ेदार तरीके से वहीँ के एक स्कूल में पढ़ाने वाली युवती डोरा से होती है , जो असल में काफी धनवान परिवार से सम्बन्ध रखती है . डोरा के परिवार वाले चाहते हैं की उसकी शादी किसी बड़े पद पर काम करने वाले व्यक्ति से हो . लेकिन डोरा खुद भी ग्विडो को चाहने लगती है और उसी से शादी करना चाहती है . बड़े ही नाटकीय तरीके से ग्विडो डोरा को उसकी सगाई की पार्टी से भगाकर अपने घर ले आता है . दोनों शादी करके ख़ुशी - ख़ुशी साथ रहने लगते हैं , कई साल बीतते हैं . अब घर में तीन लोग हैं ग्विडो, डोरा और उनका बच्चा - जोशुआ . धीरे धीरे डोरा की माँ भी पुरानी बातें भूलकर डोरा को माफ़ कर देती है . एक दिन जब जोशुआ के जन्मदिन पर डोरा अपनी माँ को लेकर घर आती है तो पाती है की घर का सारा सामान बिखरा पड़ा है . घर में न तो ग्विडो है न जोशुआ . मोहल्ले के दूसरे यहूदियों के साथ उन्हें भी यातना शिविर में ले जाया जा चुका है .

यहाँ से फिल्म का दूसरा भाग शुरू होता है . डोरा भी तय कर लेती है की उसे हर हाल में अपने पति और बच्चे के साथ ही रहना है . वह भी उस ट्रेन में जाने की अनुमति ले लेती है, जिसमें ग्विडो और जोशुआ के साथ वे सब लोग हैं जिन्हें यातना शिविर में ले जाया जा रहा है . अपनी पत्नी को साथ चलता देखकर ग्विडो खुश भी होता है और दुखी भी . शिविर में पहुचने के बाद महिलाओं और पुरुषों को अलग कर दिया जाता है . जोशुआ के पूछने पर ग्विडो उसे समझाता है कि वे सब लोग एक खेल खेल रहे हैं जिसमें उन्हें कुछ दिन घर से दूर रहना पड़ेगा और खेल के नियमों के हिसाब से चलना पड़ेगा . जो भी व्यक्ति सबसे पहले 1000 पॉइंट्स बटोर लेगा वो जीत जाएगा . और जीतने वाले को इनाम में एक टैंक दिया जाएगा , असली टैंक ! ग्विडो नहीं चाहता कि जोशुआ को इस कड़वी सचाई का पता चले कि वे लोग एक ऐसी जगह आ चुके हैं , जहाँ से जीवित वापस लौटना शायद कभी संभव न हो . इस तरह जोशुआ के हर सवाल के जवाब में ग्विडो उसे आश्वस्त करता है कि बाकी लोग उसे कुछ भी कहें , उसे उनकी बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योकि वो लोग नहीं चाहते कि जोशुआ जीते . यातना शिविर में जहाँ बूढों और बच्चों को काम के लिए निरर्थक मानकर मार दिया जाता है , ग्विडो जोशुआ को अपने कमरे में जर्मन सैनिकों से छुपा कर रखता है , जहाँ उसके साथ और भी कई लोग हैं . यातना शिविरों में यह एक आम तरीका हुआ करता था जिसमें काम के लिए निरर्थक समझे जाने वाले लोगों को बाथरूम जैसे कक्षों में शावर लेने को कहा जाता था और पानी की जगह ज़हरीली गैस छोड़कर मार दिया जाता था.


जोशुआ को अंत तक ग्विडो महसूस नहीं होने देता की वास्तविकता क्या है . जब युद्ध समाप्त होने लगता है और जर्मन सेना वापसी की तैयारी करने लगती है , भगदड़ में ग्विडो जोशुआ को एक बॉक्स में यह कह के छुपने को कहता है कि यह खेल का अंतिम पड़ाव है , वे लोग बस खेल जीत ही चुके हैं और जीतने के लिए जोशुआ को किसी भी कीमत पर तब तक डिब्बे से बाहर नहीं निकलना है, जब तक कि सब लोग वहाँ से चले नहीं जाते. ग्विडो डोरा को खोजने निकल जाता है , लेकिन बीच में ही एक सैनिक द्वारा पकड़ लिया जाता है . सैनिक ग्विडो को गोली मार देता है .


ग्विडो के कहे अनुसार जोशुआ सुबह तभी बाहर निकलता है , जब चारों तरफ शांति छा चुकी है , बचे खुचे यहूदी भी धीरे - धीरे बाहर आते हैं . जोशुआ सड़क पर अकेला खड़ा है , तभी सामने से अमेरिकन आर्मी का एक टैंक आता है . जोशुआ खुश है कि वह खेल जीत चुका है और यह टैंक उसकी जीत का इनाम है . टैंक पर सवार अमरीकी सैनिक सड़क पर खड़े अकेले बच्चे को देखकर अपने साथ टैंक पर बिठा लेता है . जोशुआ जीत कि ख़ुशी में फूला नहीं समां रहा है कि जो उसके पिता ने कहा था , बिलकुल वैसा हुआ . रास्ते में जोशुआ को उसकी माँ भी मिल जाती है . जोशुआ माँ को सुना रहा है कि कैसे उसने सारे नियमों पर चलकर सबसे ज़्यादा अंक बटोरे और इनाम में टैंक जीत लिया . जोशुआ नहीं जानता कि उसके और इस क्रूर यथार्थ के बीच ढाल बनकर खड़ा उसका पिता ग्विडो उससे हमेशा के लिए दूर जा चुका है. वह इस खेल से मुक्त हो चुका है लेकिन उसे सिखा गया है कि जीवन बहुत सुन्दर है .

फिल्म का पहला भाग कुछ अधिक लम्बा लगता है लेकिन यह ग्विडो के व्यक्तित्व को स्थापित भी करता है . जिस तरह का जीवट ग्विडो यातना शिविर में रहकर दिखाता है, उसे जस्टिफाई करने के लिए पहले भाग में उसका खिलंदडपन दिखाना ज़रूरी भी लगता है . हिटलर के यातना शिविरों की सच्चाई को स्पिलबर्ग की ' शिंडलर्स लिस्ट ' फिल्म भी ज़बर्दस्त तरीके से दिखाती है पर यह एक अलग जानर की फिल्म है . कई आलोचक इसे चार्ली की ' द ग्रेट डिक्टेटर' की श्रेणी में रखते हैं . फिल्म में ग्विडो का किरदार खुद रोबर्टो बेनिनी ने ही निभाया था . फिल्म को विभिन्न श्रेणियों में 3 ऑस्कर मिले जिसमें बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी शामिल था . कान्स फिल्म समारोह समेत अन्य कई समारोहों में भी इस फिल्म को काफी सराहा गया , पुरस्कृत भी किया गया .

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