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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 फ़रवरी, 2010

श्याम बेनेगल गंभरी सिनेमा के फ़िल्मकार

भारतीय सिनेमा को अंकुर, निशांत, मंथन और भूमिका जैसी कलात्मक फ़िल्में देने वाले प्रसिद्ध फ़िल्मकार श्याम बेनेगल ने पिछले दिनों दिल्ली के इंटरनेशनल सेंटर सभागार में भारतीय सिनेमा में परंपरा, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता’ विषय पर अपने व्याख्यान के दौरान यह कहते हुए अफ़सोस जाताया कि आज के भारतीय सिनेमा से ग्रामीण भारत एकदम गायब होता जा रहा है। अलबत्ता, उन्होंने कहा कि यह ग्रामीण भारत अब भोजपुरी सिनेमा में नज़र आता है।

आमतौर पर सिनामा में क्या होता है और ख़ासतौर पर से मनोरंजन के नाम से पर क्या-क्या होता है, यह बताते हुए बेनेगल ने इसके बरक्स सत्यजीत राय की फ़िल्मों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि राय ने सिनेमा की भाषा को समझा और उसे सौंन्दर्य बोध बनाया। भारतीय सिनेमा पर उनका प्रभाव महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय है। उन्होंने कह कि सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक वगैरह और उनके (बेनेगल) व उनके बाद के कई फ़िल्मकारों की फ़िल्मों को मुख्यधारा का सिनेमा न मानकर, समांतर सिनेमा कहा जाना ग़लत है। उन्होंने कहा कि फ़िल्में सदा ही मनोरंजन करें यह ज़रूरी नहीं है। ख़ुद की फ़िल्मों का ज़िक्र करते हुए कहते कि मैं दर्शकों बाँधना, झकझोरना और चुनौती देना चाहता हूँ। जूनून, त्रिकाल, सूरज का सातवाँ घोड़ा और वैलकम टु सज्जनपुर जैसी दूसरी कई संवेदनशील फ़िल्में बनाने वाले बेनेगल ने आरंभ में राजा राममोहन राय के सामाजिक आँदोलन और रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा परंपरागत समाज को बदलने की शुरूआत का उल्लेख करते हुए बताया कि बगांल में पुनर्जागरण के सूत्रधार वास्तव में टैगोर रहे है। श्री बेनेगल कहते है कि सिनेमा मानवीय स्थितियों को दर्शाने वाला आदर्श माध्यम है, और परंपरागत मूल्यों से जुड़े सिनेमा के तौर पर कुछ कुछ होता है, बागबान का उदहारण दिया, तो वहीं सिनेमा में आए कुछ आधारभूत परिर्वतन के तहत ‘ बंटी और बबली’ व सरकार को उत्तर आधुनिक सिनेमा का उदहारण बताया। आधुनिक सिनेमा की चर्चा करते हुए बेनेगल ने कहा कि तकनीकी क्रांति से सिनेमा की पहुँच वैश्विक हुई है।

इस मशहूर और एक ख़ास नज़रिए और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध फ़िल्माकार की एक चर्चित फ़िल्म समर का प्रदर्शन बिजूका लोक मंच के बिजूका फ़िल्म क्लब में रविवार 17 जनवरी 2010 को शहीद भवन, इन्दौर में रखा गया। ‘समर’ देखने वाले दर्शकों ने कहा कि-

सुश्री सजला श्रोत्रियः फ़िल्म बहुत ही संवेदनशील मुद्दे को केन्द्र में रखकर बनी है। मेरे गाँव दर्जी कराडड़िया में भी यह समस्या है। मैं चाहती हूँ कि इस फ़िल्म को मेरे गाँव में दिखाया जाये, ताकि लोग कुछ सोचे-विचारे। मैं इंदौर के आसपास कई गाँवों में अपनी नौकरी और काम के सिलसिले में जाती हूँ और इस छुआछूत जैसी इस समस्या को बहुत क़रीब से देखती हूँ।

इदरीश अंसारीः फ़िल्म में दलितों का शोषण दिखाया गया है। मैं कुलर, ए सी, फ्रीज आदि सुधारने का आउटडोर काम करता हूँ। काम के सिलसिले में एक बार धार रोड पर एक गाँव में एक व्यक्ति के यहाँ फ्रीज सुधारने गया, तो मुझे नहीं मालूम था कि वह किस जाति का है। लेकिन जब फ्रीज सुधारकर उसके घर से निकला, तो कुछ जान-पहचान के लोग मिल गये, जिनके यहाँ मैं कभी कुछ सुधारने गया था। उन्होंने मुझे कहा कि तुम इस नीच के यहाँ क्यों गये ? और ये ऎसा पैसे वाला हो गया कि फ्रीज भी ख़रीद लाया। और कहा कि अब हम तुम्हें अपने यहाँ कभी कुछ सुधरवाने नहीं बुलाएँगे। यह फ़िल्म दलितों की समस्या पर को अच्छे से उभारती है।

रेहाना हुसैनः अत्याचार करने वाला और सहने वाला दोनों ही बराबर के दोषी है। लेकिन इन मुद्दों को समझने और इनके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए शिक्षा की ज़रूरत है। शिक्षा हर आदमी को मिले यह व्यवस्था देखना सरकार की ज़िम्मेदारी है। शिक्षा को महज़ संयोग नहीं मानना चाहिए उस पर छोटे-बड़े सभी वर्ग के लोगों का समान हक़ है। लेकिन अफ़सोस की बात यही है कि इस व्यवस्था में हक़ के लिए लड़ना भी गुनाह मान लिया जाता

रोहितः फ़िल्म अच्छी लगी। फ़िल्म में ठाकुर लोग ग़रीबों के साथ जो बुरा बर्ताव करते हैं, वह बुरा लगा।

प्रत्यक्षः मैंने अपने स्कूल कॉलेज में कभी ऎसा नहीं देखा, जैसा इस फ़िल्म में लोगों के साथ होना दिखाया गया। हाँ इससे उलट बात होते ज़रूर सुनी। हमारे साथी छात्र सोचते हैं और कहते भी हैं कि डाक्टर, इंजीनियर या किसी भी तरह की पढ़ाई या नौकरी की प्रतियोगिता हो। दलित लोगों को आरक्षण मिल जाता है। फिर वह भलेही केवल जाति से दलित हो और आर्थिक रूप से बहुत सक्षम हो। आरक्षण को जातिगत नहीं वर्गीय आधार पर या कहें कि आर्थिक रूप से कमज़ोर छात्रों को देना चाहिए। लेकिन ख़ास जिनको आरक्षण की ज़रूरत होती है, वे तो दूर ही रहते हैं और वह आरक्षण लाभ किसी आय.पी.एस, आय.ए.एस या नेताओं की संतानों को या वे जिनकी सिफारिश कर दे उनकों ही मिलता है।

चन्द्रशेखर बिरथरेः फ़िल्म का कथानक बहुत ही ज़ोरदार है। यह स्थिति समाज में आज भी व्याप्त है। धर्म कब शिक्षित होगा ? आज भी लोग लकीर के फ़क़ीर हैं। देश को आज़ाद हुए बासठ बरस हो गये हैं, पर लगता नहीं। ब्राहम्ण, ठाकुर या पटेल छोटी जातियों के लोगों से आख़िर किस मामले में अलग है। वे भी तो एक इंसान ही हैं। फिर इंसान और इंसान में इतना भेद क्यों है ? फ़िल्म का एक पात्र जिसका नाम मुरली है, वह बहुत कुछ पूर्वाग्रह के आधार पर भी करता है। फ़िल्म में एक कविता बहुत ही ख़ूबसूरती से उपयोग और पाठ हुआ है। प्रकृति किसी के साथ पक्षपात नहीं करती है।फ़िल्म में जो दिखाया गया है, वह जाति से ज़्यादा वर्गीय संघर्ष है। यह बरसों से चलता आ रहा है और अभी जाने कब तक चलेगा

दिव्या पंडितः मैं समझती हूँ कि किसी पर दोष मड़ने की बजाय ख़ुद को बदलने का प्रायास निरंतर करते रहना चाहिए। समाझ में सकारात्मक बदलाव की बेहद ज़रूरत है। फ़िल्म का संदेश भी यही है।
सीमाः छोटी जात की एक महिला कुएँ पर पानी भरने जाती है, तब उसके साथ एक ठाकुर की औरत बहुत ख़राब बर्ताव करती है। ग़रीब महिला एक तो उसे उठाकर उसका कर्ण फूल देती है, और ऊपर से वह उस पर बर्तन फेंक कर मारती है। यह सरसर ग़लत है। पुलिस वाले भी छोटे लोगों को ग़ाली-गलोच देते हैं, डराते-धमकाते हैं। ऎसे लोगों के ख़िलाफ़ लोगों को सामूहिक आवाज़ उठाना चाहिए।

सुरेश उपाध्यायः देपालपुर के पास एक बनेड़िया गाँव है। वहाँ हरिजन बस्ती में एक बार जाने का काम पड़ा था। मैंने देखा कि एक हैंडपम्प जो हरिजन बस्ती से थोड़ी दूरी पर था। उसके आस पास तार फेन्सिग की हुई थी। मैं जिसके यहाँ गया था, उससे पूछा, तो उसने बताया कि वह उधर पटेल का घर है। हैंडपम्प सरकारी है पर वह हमें पानी नहीं भरने देता। मैंने कहा कि शिकायत क्यों नहीं करते। वह बोला- शिकायत कई बार की, जब भी पुलिस गाड़ी आती है, पटेल को पहले से ही पता चल जाता है। तार हटा लेते हैं। पुलिस उलटी हमें डांटती है कि हम झूठी शिकायत करते हैं। समाज को शिक्षा की ज़रूरत तो है,पर वह कैसी हो ? यह हमारे बड़े-बड़े विद्वान या तो जानते नहीं या देना नहीं चाहते।

इदरीश खत्रीः 1857 की क्रांति के 150 वर्ष पूरे होने पर मैं कुछ छात्रों और कलाकारों को लेकर गाँव-गाँव नुक्कड़ नाटक करने गया था। मेरे भी अनुभव जातिगत व्यवस्था को लेकर अच्छे नहीं है। गाँव में नाटक करने से पहले हमें वहाँ के सरपंच से अनुमति लेना होती थी। एक आवेदन पर सरपंच के हस्ताक्षर करवाने होते थे। एक गाँव में मैंने एक अच्छे ख़ासे आदमी से पूछा कि हमें नाटक करना है। सरपंच साहब कहाँ मिलेंगे, उनके हस्ताक्षर करवाना है। उसने पूरी बात समझने के बाद कहा कि चलो मेरे साथ। वह एक बढ़िया घर पर ले गया। बग़ल में ही खेत पर काम करने वाले अपने नौकर को बुलाया और कहा- ले इना काग़ज़ पे थारी घरवाली को अंगूठो लगवई ला।
मैं समझ गया था। उस गाँव की सरपंज उस ठाकुर के नौकर की बीवी थी, जो उसके खेतों में काम कर रही थी। अब वहाँ की पँचायत कैसी चलती होगी और पँचायत में आने वाली राशि का क्या होता होगा, समझा जा सकता है।

सत्यनारायण पटेलः रेहाना ने कहा कि समाज शिक्षा की सख्त ज़रूरत है। सुरेश उपाध्यायजी ने कहा- यह सोचने की ज़रूरत है कि शिक्षा कैसी दी जाये ? बातचीत में सभी साथियों ने दलित और तथाकथित स्वयं द्वारा घोषित ऊँची जाति के बीच चल रहे भेद-भाव पर खुलकर बात की। मैं समझता हूँ कि एक सही राजनीति शिक्षा की समाज को बेहद ज़रूरत है। ऎसी राजनीतिक शिक्षा जो जाति, और दलगत, क्षेत्रिय टुच्ची राजनीति से ऊपर उठकर समाज में परिवर्तन की लहर पैदा कर सके। इस देश और दुनिया में ऎसी शिक्षा मौजूद भी है। उसके कई जानकार भी है। लेकिन आज सवाल जानकारों की निस्ठा पर है। बार-बार देश में घटने वाली तमाम घटनाओं से ऎसा प्रतीत होता है, कि जो देश में परिर्वतन करने को निकले थे, वे ख़ुद परिर्वतित हो गये हैं। वे बदले उनके पक्ष में है, जो देश में इस सड़ी-गली व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं। आज इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करना जितना ज़रूरी है, उससे कहीं ज़्यादा उन जानकारों के ख़िलाफ़ भी आवाज़ बुलंद करने की ज़रूरत है, जो जनता को बदलाव का सुनहरी सपना दिखाकर ठग रहे हैं। चीज़े या परिस्थिति कह लो बुरी तरह से गडमड हो गयी है। लोग क्रांतिकारियों का मुखौटा पहनकर या कहो कि लेनिन, शहीद भगत सिंह, चे ग्वेरा और फिदेल कस्त्रो जैसे लोगों का नाम लेकर लोगों को धोका देने लगे हैं। ऎसे लोग जो प्रगतिशील विचारों से ख़ुद को संपन्न बताते हैं। असल में वे प्रगतिशील विचारों के दलाल साबित हो रहे हैं। आज वे जनता के पेट पर सजने वाले मंच पर बैठने में गौरव महसूस करने लगे हैं। प्रगतिशीलता की बात करना और उस पर अमल करने में बड़ा फर्क़ नज़र आने लगा है। इसे पहचानने और इससे बचने की भी ज़रूरत है। फ़िल्मकार ने इस फ़िल्म में समाज के वर्गीय द्वंद्व को ख़ूबी से प्रस्तुत किया है। अपनी बात समाप्त करते हुए मुझे जॉन रस्किन की एक बात याद आ रही है कि हम जो सोचते हैं और विश्वास करते हैं, उससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है कि हम क्या करते हैं। जो मुझे लगता है कि आज के छद्म प्रगतिशील समाज पर कॉफी सटीक है।

यह आयोजन चल रहा था तभी कॉ. ज्योति बसु के निधन की ख़बर मिली। कार्यक्रम की समाप्ति के उपरांत बिजूका लोक मंच के साथियों ने कॉ. ज्योति बसु को श्रद्धांजलि दी।
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बिजूका लोक मंच
संपर्कः bijukaindore@gmail.com, ssattu2007@ gmail.com, 09826091605, 0939852064, 09300387966, 09302031562, 09893200976, 64, शहीद भवन , न्यू देवास रोड, ( राजकुमार ओवर ब्रीज के पास) इन्दौर (म.प्र.)

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