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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

09 जनवरी, 2010

साम्राज्यवादी राजनीति के परीणाम तो भोगना पड़ेंगे

बिजूका फ़िल्म क्लब में फ़िल्म ‘ओसामा’ का प्रदर्शन दिनांक 3 जनवरी 010

फ़िल्म- ओसामा के निर्देशक-सिद्दिक बरमक है। भाषा वहाँ जो बोली जाती है, वही है, लेकिन अंग्रेजी सब टाइटल होने की वजह से फ़िल्म ठीक से संप्रेषित होती है। यह फ़िल्म सन 2003 में बनायी गयी है। फ़िल्म का फ़िल्मांकन काबुल या कहलो अफगानिस्तान में हुआ है। फ़िल्म के निर्देशक जनाब सिद्दिक बरमक ने फ़िल्म को बहुत ही ख़ूबसूरत और कलात्मकढंग से प्रस्तुत किया है। फ़िल्म देखकर यह समझ में आता है कि दुनिया में साम्राज्यवादी राजनीति और अमेरीकी दादागीरी के चलते अफगनिस्तान के समाज पर किस तरह का असर पड़ा है। वहाँ बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं की तादात में बढ़ोत्री हुई है। अधिकांस घर ऎसे हैं, जहाँ रोज़ी कमाने वाला कोई पुरुष नहीं बचा है। पुरुष या तो तालिबानियों के शिकार हो जाते हैं या अमेरीकी गोलियों का निशाना बन जाते हैं। बचे हुओं के सामने रोज़ी कमाना एक बड़ी समस्या पैदा हो गयी है। जीवन की गाड़ी बहुत भेरु घाट की तरह अंधे मोड़ और घुमावदार घाटी पर बड़ी कठिन से गुज़र रही है। फ़िल्म की मुख्य पात्र एक किशोर उम्र की लड़की है। लड़की के घर में माँ ओर दादी के सिवा कोई नहीं है। दादी बहुत बुजुर्ग और कमज़ोर है। माँ जवान है और काम करके कमा सकती है। लेकिन वहाँ साम्राज्यवादी राजनीति ने जो हालात पैदा कर दिये हैं, उसमें उसके रोज़ी कमाना तो दूर घर से निकलना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं है। लेकिन पेट को तो रोटी चाहिए। यह मज़बूरी उस लड़की लड़का बनने पर विवश कर देती है। लड़की बाल कटाकर लड़का तो बन जाती है। एक छोटी दूकान पर काम भी करती है और किसी तरह ज़िन्दगी के कुछ दिन आगे सरकते हैं। लेकिन लड़की पर एक दिन तालिबानी की नज़र पड़ जाती है। वे उसे वहाँ ले जाते हैं जहाँ लड़कों को एक ख़ास तरह का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान लड़की कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब उसे एक अंधी सूरंग में रस्सी से लटकाया जाता है। लड़की बहुत डर जाती है। ख़ौफ़ के कारण असमय मासिक धर्म आ जाता है और सबको पता चल जाता है कि ओसामा लड़का नहीं लड़की है। फ़िल्म में विधवा महिलाओं जिस कैद में रखना बताया है, वहीं लड़की को भी बुर्का पहना कर डाल दिया जाता है। एक दिन वहाँ तालिबानियों का एक मुखिया एक विदेशी पत्रकार और उसकी साथी को मौत की सज़ा भी सुनाता है, क्योंकि वह वहाँ के हालात को विडियों में रिकार्ड करते पकड़ा गया था। एक बूढ़ा प्रशिक्षक को वह लड़की जिसका नाम ओसामा है, पसंद आ जाती है। वह उसे मुखिया से माँग लेता है। उसे अपनी बीवी बना लेता है। प्रशिक्षक की पहले से कई बीवियाँ और बच्चे हैम, सभी को वह अलग-अलग कोठरी में ताले में बंद रखता है। ओसामा को भी सुहाग रात के बाद एक कोठरी में बंद कर देता है। पूरी फ़िल्म में एक दहशत का महौल बना रहता है। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी, स्क्रीप्ट, संवाद और बुर्के के भीतर और बाहर जो डर उभरता है, वह सब इस तथाकथित साम्राज्यवादी राजनीति और व्यवस्था के बारे में धैर्य से सोचने को विवश करता है। आख़िर किस शान्ति के लिए या विकास के लिए धरती के कई हिस्सों में यह सब हो रहा है ? कुछ दृश्य जैसे हज़ारों महिलाओं पर पानी की बोछार कर उन्हें तितर-बितर करना। ओसामा का अपने बालों को गमले रोपना और उन्हें इस उम्मीद में स्लाइन से पानी देना कि वैसे ही बढ़ेंगे जैसे सिर पर रहकर बढ़ते। दर्शक की संवेदनाओं को झकझोर देते हैं।
सत्यनारायण पटेल

फ़िल्म देखने वालों का कहना है-

रेहाना- फ़िल्म सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रकट करती है। इस्लाम के उसूलों की आढ़ लेकर किस तरह औरतों का शोषण किया जाता है, इसका बख़ूबी चित्रण किया गया है। सिनेमेटोग्राफी एवं फ़िल्मांकन, संकलन अद्भूत है कुछ दृश्य बहुत उम्दा बन पड़े हैं, जैसे- एक पात्र जो परिस्थितिवश लड़की से लड़का बनना, और फिर क़दम-क़दम पर ख़ुद को लड़का साबित करते रहने के प्रयास के तहत पेड़ पर चड़कर दिखलाना, रस्सी से बाँधकर कुएँ में लटकाना, बूढ़े मौलवी से अपनी मर्ज़ी के बग़ैर शादी कर गधा गाड़ी में बैठकर ढलान की ओर धीरे-धीरे लुढ़कते हुए जाना। यह एक बिम्ब एक तरह से उसकी ज़िन्दगी की ढ़लान को दर्शाने वाला होता है। अंत में बूढ़े मौलवी का लड़की को एक कमरे में क़ैद करता है। लेकिन उसके कमरे पर ताला कौन-सा लगेगा यह लड़की को ही चुनने प्रस्ताव रखता है। बूढ़े के पास एक से एक ख़ूबसूरत ढ़ग से बनाये ताले होते हैं। यह सब दृश्य और घटनायें फ़िल्म में पात्रों पर जो असर करते हैं, वह करते ही हैं। लेकिन दर्शक को भी परेशाँ करते हैं। इस फ़िल्म का की पृष्ठभूमि ग्रामीण है। लेकिन ऎसी और इससे मिलते जुलती हमारे अपने इस तथाकथित सभ्य शहरी विकसित समाज में भी देखने को मिल जाती है। हमारे अपने इन्दौर में भूमि हत्या कांड हुआ था। यहाँ मेरा कहन कि शोषित होने वाला और शोषण करने वाले बराबर ज़िम्मेदार हैं। इस फ़िल्म में भी सभी विधवाएँ मिलकर अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का विरोध कर सकती थी, सफल होती, नहीं होती बात दूसरी है, लेकिन कोशिश तो कर ही सकती थी। उनका ऎसा न करना और सहना बर्दाश्त के लायक नहीं है। वे सब कुछ नहीं कर सकी उसके पीछे उनमें कहीं न कहीं शिक्षा का अभाव तो बताता ही है, यह भी बताता है कि पुरुष का दबदबा और आतंक किस हद तक है।
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चन्द्रशेखर बिरथरे- एक इंसान या कह लो एक जैसा सोचने वालों के हाथों में जब किसी भी तरह की ताक़त, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक होती है, तो वे उसका मन माने ढंग से इस्तेमाल करते हैं। कह सकते हैं वे निरंकुश होने में भी संकोच नहीं करते। जो करते हैं उसे ही सही ठहराने के तर्क भी गढ़ लेते हैं। यह फ़िल्म निशित ही बहुत बेहतरीन ढंग से बनायी गयी है और एक बढ़े मुद्दे पर से नकाब हटाती है। जब हम साम्राज्यवादी राजनीति का तख्ता पलट नहीं सकते तो उसका फल तो भोगना पड़ेगा।
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इदरीस अंसारी- फ़िल्म में जो हालात पेश किये हैं, यह सिर्फ़ अफ़गानिस्तान तक ही सीमित है, लेकिन हालात बेहद ग़लत है। फ़िल्म में वहाँ ढोरों विधवाओं का होना बताया गया, उस मौलाना को निकाह के लिए किसी विधवा को ही चुनना था, एक कम उम्र की लड़की को नहीं। हक़ और बातील सिर्फ़ हमारे भारतीय महाव्दीप पर ही है।
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शकील अंसारी- फ़िल्म में जो हालात दिखायें हैं, ऎसे हालात फ़िल्म में ही है, ज़िन्दगी में नहीं, फ़िल्म बनाने वाले ने अपने दिमाग़ के ख़्याल पेश किये हैं, इनका इस्लाम से कोई वास्ता नहीं।
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अंजुम पारेख- बात अकेली इस फ़िल्म में दिखाये गये औरतों, बच्चों पर अत्याचार की नहीं है, हमारे देश और घरों में भी कमोबेश यही हाल है। बस, उसका रूप अलग है। औरत की अभिव्यक्ति की आज़ादी। संपत्ति पर अधिकार और उसके इस्तेमाल की आज़ादी सब पर ताले पड़े हैं।
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यामिनि- यह फ़िल्म देख मैं स्तब्ध हूँ। कोई समाज पर इतना अत्याचार कैसे कर सकता है और कोई इतना सह भी कैसे सकता है। यह पूरा खेल इस सड़ी-गली व्यवस्था में चल रही साम्राज्यवादी राजनीति का और उसके ख़िलाफ़ कोई ताक़तवर आंदोलन न होने का नतीजा है।
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1 टिप्पणी:

  1. साम्राज्यवादी राजनीति के परीणाम तो भोगना पड़ेंगे

    सही है. मगर क्या इन अत्याचारों के खिलाफ ताकतवर आन्दोलन आसान है? यहाँ शोषितों को एकजुट करने की सशक्त आवश्यकता .

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